२४० टोमा बावन वैष्णवत की वार्ता पाछे महाप्रसाद लेहि। और वह विरक्त और ठौर चुकटी मांगे, परंतु वह क्षत्रानी के घर न मांगतो। कछ लौकिक की संबंध नाहीं। इतनी वह विरक्त के मन में आस ही, जो- कवह मोकों कछ द्रव्य को काम परेगो तो अटकी न रहेगी, यह देगी। सो यह अन्याश्रय ते श्रीठाकुरजी वा विरक्त कों सानुभावता न जनावत है। तव श्रीगुसांईजी विचारे, जो-वैष्णव का रंचक हु अन्या- श्रय होई तो भगवद् प्राप्ति न होई । तातें याकों अन्याश्रय तें छुडावनो। सो वह विरक्त जव श्रीगुसांईजी के दरसन कों आयो, तव श्रीगुसांईजी उह वैष्णव सों कहे, जो-तु वह क्षत्रानी को स्नेह छोरि दे । तब वा विरक्त ने कह्यो, जो-महाराज ! वह क्षत्रानी को स्नेह तो मेरे प्रान के संग है । सो मोसों छुटे नाहीं । सो मैं आप के आगे झूठ काहे को वोलं ? और मेरे लौकिक संबंध कळू नाहीं । सो आप अंतरयामी हो । सो सव जानत हो । यह सुनि के श्रीगुसांईजी चुप होइ रहे । पाठे श्रीगुसांईजी दिन दस-पंद्रह पाछे वह विरक्त सों कहे, जो- वैष्णव! हम को रुपैया हजार पांच चहिए। सो हमारे दस-बीस दिन में हुंडी आवेगी । तव तुम को देहिंगे। तुम्हारे काहू सों पहिचान होई तो ल्याय देउ । तव वह विरक्त ने कह्यो, जो- महाराज ! रुपैया चहिए सो तैयार है। मैं लाउंगो। पाठें वह वैष्णव वह क्षत्रानी पास गयो। और कह्यो, जो-आज मेरो एक काम परयो है। सो तासों तू नाहीं मति कीजो। तब वह क्षत्रानी ने कह्यो, जो-मैं तुम्हारी हों, सब घर तुम्हारो है, तुम कहो सो मैं करों। तब वैष्णव कही, हजार पांच रुपैया श्री-
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