२५६ दोमी वाचन चैप्णवन की वार्ता और महा अकेले श्रीठाकुरजी को कवह छोर नाहीं। एक दिन मेहा श्रीगोकुल आवें । श्रीगुसांईजी के दरसन करि जाँई । एक दिन महा की स्त्री दरसन करि जाँई । और महा ने घर में मृतिका को मंदिर बनाय के तामें किवाड़ काप्ट के रंगीन कर । सो तामे श्रीठाकुरजी को सिंघासन पर पधराये । तहाई सिज्या रहे । सो रात्रि को किवाड़ लगाय दोऊ अपने अपने ओसरे रखवारी करें। और मेहा ने श्रीयमुनाजी के किनारे खेती करी । सो मेहा खेत पर जाँई । तव मेहा की स्त्री अकेली रखवारी करें । या भांति दोऊ मिलि के अत्यंत स्नेह सों सेवा करें। सो या भांति कछुक दिन वीते । सो एक दिन श्रीगुसांईजी विचार कियो, जो - अन्नकूट के दिन दस रहे हैं। तव सव वेष्णव सेवक सों कहे, जो - अन्नकूट के दरसन कों श्रीजीद्वार चलनो है । सो कौन कौन चलेगो ? तव वैष्णव विनती करी, जो - महाराज ! आपु जाकों आज्ञा देडगे सो चलेगो । तव श्रीगुसांईजी दस पांच वैष्णव और ब्रजवासी इन को श्रीगोकुल राखे । और सवन को आज्ञा दिये । ता समे मेहा श्रीगुसांईजी के दरसन को आये हते। तव श्री- गुसांईजी मेहा सों पूछे, जो-तू अपने घर रहेगो के श्रीजी- द्वार चलेगो ? तव महा ने कही, जो- महाराज ! मेरे मन में यह है, जो-श्रीठाकुरजी कों पधराइ कै आप के संग चलों। और आप आज्ञा करो तैसें करों ? तव श्रीगुसांईजो कहे, जो- सुखेन चलो। पाछे मेहा आपने घर गयो। तव जाँइ कै बिचार कियो, जो - खेती करी है ताकों कहा करों ? सो वा गाम में एक गोरवा रहत हतो, भलो मनुष्य हतो। ताकों
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