पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२७७

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२६८ टोमी बावन वणवन की वार्ता ! सके । सो घडीभर मर्छा रही । पाठे जागे । नव सृपिम श्रीगुगांईजी मों विनती किये, जो - महागज ! बेगि अंगीकार कीजिए। अब विलंन मह्यो जात नाहीं। तब श्रीगुसांईजी हृषिकेस को नाम मुनाए । और कहे, जो - अब कहा समाचार है ? तब हृपिकम ने कही, जो - महागज ! जा म्बस्व मों आप दग्सन दिए । उन की सेवा करों एसी ईच्छा है । तब श्रीगुसांईजी हपिकस को कहे, जा, न्हाड ले । हम तोकों सेवा पधगई दडंगे। तब रूपचंदनंदा पास टाई हतं । उन कम्यो, जो-चलो हो न्हवाह देन हों। पाछे हृपिलस रूपचंदनंदा के उहाई न्हाए । पार्छ रूपचंदनंदा ने नए बन पहरिवे को दिये । मो हपिफेम पहरिक श्रीगुसांईजी आगे ठाहे भए । तब श्रीगुसांईजी वाकों नाम-निवेदन करवाए । पाठे श्रीमदनमोहनजी को स्वरूप पास में हुतो । सो श्रीगुसांईजी आपु हुपिफस कों पधराड दिए । और आना किये, जो- ये मेगेई म्वरूप है । तातें इनकी नीकी भांति सों सेवा करियो। और रूपचंदनंदा को संग करियो। पाछ हपिकेस यथामक्ति भेंट किये । ता पाछे घर जाँई स्त्रीपुत्रादि सब को ले आये । सो उनकों ह श्रीगुसां- ईजी सों विनती करि नाम निवेदन कराए । पाठे हुपिकेस प्रीतिपूर्वक श्रीठाकुरजी की सेवा करन लागे । और वे नित्य रूपचदनंदा के इहां भगवद्वार्ता सुनिवे जाते। वार्ता प्रमंग-१ सो हृपिकेस आगरे में घोड़ान की दलाली करते । ऐसे करत वोहोत दिन वीते । सो सोदागर वोहोत घोड़ा आगरे में ल्यावते । सो जितने वे घोड़ा आगरे में विकते सो सव हृपिकेस की मारफत विकते । सो एक दिन हपिकेस के मन में यह आई, जो - मोकों वोहोत दिन घोड़ान की दलाली करत भए हैं। परंतु कोई घोड़ा श्रीगुसांईजी को भेंट नाहीं कियो। तातें विना ऐव को घोड़ा, एकहू दोष न हों। ऐसो घोड़ा एक श्रीगुसांईजी को भेंट अवस्य करनो । सो हृषिकेस के घर में खरच वोहोत । स्त्री पुत्र कुटुंब वोहोत । सो पैसा घर में रहे नाहीं । जो दलाली कौ द्रव्य आवे सो सव उठि जाँई। सो हृषिकेस के मन में वोहोत आरति भई। जो-