२७२ टोमो धावन वैष्णवन की वार्ता ! 7 ईजी वोहोत प्रसन्न भये । कहे, आज मेरे मन में हती सो भयो। पाछे श्रीगिरिधरजी सों आना किये, जो-गोपीवल्लभ ताई मैं पहोंच्यो हुँ । अव राजभोग में तुम पहोंचियो। मैं तो अव श्रीनाथजीद्वार जात हों । यह सुनि के तत्काल श्रीगिरिधरजी तो न्हाय के मंदिर में पधारे । तव श्रीगुसांईजी उह घोड़ा ऊपर असवार होंइ के हृपिकेस कों आज्ञा किये, जो-तू मेरे संग पास पास चलि । तव हृपिकेस चाबुक अपने हाथ में ले श्रीगुसांईजी के वाम चरनारविंद के पास परस करत चले । तब श्रीयमुनाजी उतरि के पास जव चले तब मार्ग में श्रीगुसांईजी ने वा हृपिकेस सों पूछ्यो, जो-हृपिकेस ! तू तो धन करि कै रहित है । और ऐसो सुंदर घोड़ा और ऐसे भारी साज की जीन कहां ते ल्यायो ? तव हृपिकेस डरपि के मन में कह्यो, जो - श्रीगुसांईजी तो अंतरजामी हैं । इहां मेरी झूठ चलेगी नाहीं। और गुरु के आगे झूठ कसें वोलों ? यह विचार के हृपिकेस ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो - महाराज ! एक सोदागर हजार दोय घोड़ा ल्यायो है । सो कछुक तो विकाय दिये हैं । कछक और वेचि देउंगो । तामें दलाली को द्रव्य वोहात आवेगो। सो जीनवाले को देउंगो। और वा सोदागर ने मोकों एक घोड़ा देन कह्यो है। सो मैं अपनी महनत कौ ले आयो हूं। यह सुनि कै श्रीगुसांईजी बोहोत ही प्रसन्न भये । ता समै दुपहरी की ताप वोहोत भई । सो सूर्य को देखि कै श्रीगुसांईजी सों हृषिकेस ने विनती करी, जो - महाराज ! श्रीनाथजी और श्रीनवनीतप्रियजी एक ठोर विराजे तो आप कों श्रम न होइ । ऐसें धाम में पधारत हो । सो हम कों देखि
पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२८१
दिखावट