पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३३०

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स्त्री-पुरुप, आगरे के ३२७ पुरुष महाप्रसाद ले के पाछे श्रीगुसांईजी के पास आय के दंड- वत् करी । तव श्रीगुसांईजी दोऊन के ऊपर प्रसन्न होंइ के अपने श्रीमुख तें चर्वित तांबुल को उगार दिये । सो दोऊ जनेन कों पुष्टिमार्ग को सिद्धांत हृदयारूढ भयो । पाछे दिन चारि दोऊ स्त्री-पुरुष श्रीगोकुल में रहे । पाछे श्रीगुसांईजी श्रीनाथ- ज़ीद्वार पधारे । तव स्त्री-पुरुष श्रीगुसांईजी के संग श्रीजीद्वार गए। तहां श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन करे । सो श्रीगोव- र्द्धननाथजी के दरसन श्रीगुसांईजी की कृपा तें इन दोऊ स्त्री पुरुष को लीला सहित भए । पाछे पांच रात्रि श्रीनाथजीद्वार रहे । पाठे श्रीगुसांईजी श्रीगोकुल पधारे । तव स्त्रीपुरुष श्री- गुसांईजी के संग श्रीगोकुल आए । तव स्त्री-पुरुष दोऊ जनें अपने मन में विचारें, जो - अव आगरे में चलिए । नित्य श्री- गुसांईजी के घर को महाप्रसाद लेनो उचित नाहीं है। तव दूसरे दिन प्रातःकाल ब्राह्मन-ब्राह्मनीने श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो - महाराज ! वैष्णव के संग विना हमारी बुद्धि दृढ़ कैसे रहेगी? और अव आगरे जाइवे कौ विचार है। सो आपकी कहा आज्ञा है ? यह सुनि कै श्रीगुसांईजी प्रसन्न व्है कहे, जो - आगरे में संतदासजी श्रीआचार्यजी के सेवक हैं तिनको संग नित्य करियो। और चाचा हरिवंसजी तुम्हारे संग जाइंगे । तिन सों सर्व प्रकार पूछि लीजियो। राजभोग के दरसन करि के जइयो तव स्त्री-पुरुष दोऊ जने श्रीगुसांईजी कों दंडवत् करि के पा न्हाए। मंगला आर्ति करि कै पाछे दरसन करे । ता समे श्री सांईजी आज्ञा किये. जो-आजु तुम पालने के दरसन करियो ती आता मानि कै जगमोहन