पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३४७

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३४६ दामी चाान वैवन की वार्ता पर कोप्यो. कह्यो. जा - याकां बरच कंग । तव श्रीगुसांईजी श्रीमुख ते पात्साह मों को. जा - हम या बात में आए नातं अव काहु को जीवते तो मति मागे । और एक बात हो कहीं सो सुनो । और ऐरों करो. जो - तुम एक मनुष्य पठवाय के उहां के हाकिम को बुलावा । वा डोकरी को बुलाओ. जो-या वात की प्रतीति सवन को पूरी होई । और न्याव तो पृगे ही करो। जिन जिन द्रव्य ले के प्रेमो न्याय बोटो करन्या है उन को ठीक पारि के दंड देह । तब लो हम रहेंगे । ना पाळ वा तुरक कों बंदीग्वाने मे दियो । ना पाछ पृथ्वीपति ने श्री- गुसांईजी सों बोहोत ही स्तुति करि के कह्यो. जी- मरो धर्म राख्यो। नाँतरु यह दोप और या घी की हत्या मेरे माथें पड़ती। तातें आप बड़े ही ईश्वर हो । जो - ईश्वर विनु सो न्याय कौन करें ? ता पाछे उनको एक मनुष्य पठवायो। और कन्यो जो - उनकों तुरत ही ल्याऊ । ता पाछे श्रीगुसांईजी डेरा पाँव धारे । ता पाउँ वा स्त्री सों कह्यो. जो - तृ तेरे पिता. मुसर के पास जा । तव स्त्रीने कह्यो. जो - महाराजाधिराज ! हों अव कहां जाउं ? मेरे तो राज विना और कोऊ नाहीं । कदाचित् मेरे कोऊ और जो होतो तो मोकों छोरि के केस जातो ? तातें अव तो राज के चरन कमल विनु और आश्रय नाहीं । तव श्रीगुसांईजी ने वा स्त्री सों कह्यो. जो - तू हमारी वेटी है । तातें अब तू काहू वात की चिंता मति करे । परि हम कहें सो करि। तू अपने घर जाहि। और अब तेरे स-मुग्व प्रभु ने, देख्यो है । अव ताको सव स्फुरत हैं। तातें तू अपने घर जाँइ कै श्रीठाकुरजी की सेवा करि । ता पाउँ वाके पिता,