एक चीनकार, श्रीनाथजीद्वार को ३७५ 1 रह्यो । पार्छ लरिका-लरिकी भए । तव इन को खान-पान को संकोच भयो । तब काहू ने श्रीगुसांईजी सों कह्यो, जो - महाराज ! अमूको बीन बोहोत आछी बजावत है । और वह आप कौ सेवक हु है । परि वह गृहस्थी है। वाकों खान- पान को सकोच बोहोत है । तब श्रीगुसांईजी वाकों बुलाय कहे, जो - तू श्रीना- थजी के आगे बीन बजायो करि, और तेरो नेग लियो करि। तब या बीनकार ने विनती करी, जो - महाराज ! मोहू को यही इच्छा ही। वार्ता प्रसंग-१ सो वह वीनकार श्रीनाथजी के सन्निधान वीन वजावतो। सो सबेरे संखनाद ते पहिले चारि घरी ते वजावतो। और सेन पाउँ घरी चारि ताई वजावतो। सो ऐसी सुंदर वीन वजावतो सो उन पै श्रीनाथजी रोझ प्रसन्न भए। और श्रीगुसांईजी हू प्रसन्न रहते । सो वह वीनकार अपने घर में गृहस्थ हतो। सो उनके घर व्याह-काज के दिन आए । सो उनको कछु रोजगार तो हतो नाहीं । कछू महीना न हतो । श्रीनाथजी के यहां तें नेग महाप्रसाद मिलतो । सो पहिले प्रसाद कोऊ न्योछावरि सों न देते। जो कछू नेग दे तामें वचे सौ वैष्णवन को लिवावते। सो उन चीनकार ने मन में विचारी, जो - अव कछू गुजराति के परदेस जाँई के द्रव्य ले आवे । तो व्याह-काज होइ । ऐसें अपने मन में परदेस जाइवे को विचार कियो । तव श्रीनाथ- जी ने विचार कियो, जो - ये तो गुजरात जायगो। तो वीन कौन वजावेगी ? और गृहस्थी को तो द्रव्य विना चले नाहीं। सो सेन पालें जव सव अपने अपने घर गए तव श्रीनाथजी ने एक सोने की कटोरी हती सो ले के वीन में धरि के आप तो पोटें । पाठें जव प्रातःकाल भयो । तव वीनकार आइ के वीन वजाइवे लग्यो। सो ये देखे तो, भीतर एक सोने की कटोरी
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