पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४००

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, एक ब्राह्मन विरक्त वैष्णव, गुजरात को तथा श्रीहस्त में कंगन हैं. सो ताकी आरति करि के मैं अपने श्रीहस्त में राखे हों । तातें मोको छोरि देहु । तव रंचक अध- रामृत को पान करि कै छोरि दिए । सो ऐसी लीला श्रीमथु- रानाथजी में हैं। और जव कात्यायनी व्रत कियो, तव आप 'चीरहरन लीला करी है। सो स्वरूप श्रीविठ्ठलेसजी की है। सो श्रीस्वामिनीजी के भाव में मगन हैं । सो ताहीतें गौर स्वरूप प्रगट हैं। और वस्त्रन में जो स्याम स्वरूप होंइ तो सब गोपिका श्रीठाकुरजी कों जानि जाइ । तातें श्रीठाकुरजी गौर होइ कै, श्रीगोपिका के सहस होंइ कै, वस्त्रचीर चोरि कै कदंव पै जाँइ बैठे । ता पाठे उहां गोपिकान के मन में लज्जा रूप अंतराय रह्यो है । सो श्री- विट्टलेसरायजी दूरि करि के सवन के वस्त्र दिये । सो लीला श्रीविठ्ठलेसरायजी में है। अव रासपंचाध्याई में सव ब्रजभक्तन को पुलिन में बैठाए सो स्वरूप श्रीद्वारकानाथजी कौ है । और उहां गोपी सब पुलिन में बैठी हैं। तहां मध्य में श्रीस्वामिनीजी विराजति हैं। तहां श्रीठाकुरजी आपु अचानक पधारे। सो तहां सखीयन को समस्या तें वरजी हैं। और पाऊँ श्रीहस्त कमल करि के श्री- स्वामिनीजी के नेत्र मूंदे हैं । और दोइ हस्त सों वेनुनाद किये हैं। सो याही प्रकार सो रसमय लीला हैं सो श्रीद्वारिका- नाथजी में हैं। अव श्रीगोकुलनाथजी श्रीगोवर्द्धनधारन किये हैं। और सव ब्रजभक्तन की रक्षा किये । वाम श्रीहस्त करि श्रीगोवर्द्धन को उठायो है। ता पाछे जमने श्रीहस्त में धारन कियो है।