४० दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता- श्रीगुसांईजी सों कही, जो महाराज ! अमूके वैष्णव की बेटी आई है । तब श्रीगुसांईजीने कह्यो, जो-कहो भीतर आवें । तब ये दोउ डेरा के भीतर जाँई कै श्रीगुसांईजी को दंडवत्, किये । पाठे हाथ जोरि कै उहां ई ठाढ़ी होंई रही। तव वहू ने अपनी विनती श्रीगुसांईजी सों करी, जो मोको नाम दीजिए । मैं आपकी सरनि आउंगी । तव श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो-नाम देईंगे। तव वाके सास हू के मन में नाम पाइवे को बडो उत्साह भयो । जो-ये तो साक्षात ईश्वर हैं। मो पर कृपा करि कै नाम देइंगे। तव सास ने वहू के हाथ विनती करवाई, जो मोहू को नाम दे तो , भलो है। तव वा वहू ने श्रीगुसांईजी सों फेरि विनती करी, जो-महाराज! मेरी सास हू नाम पायवे की विनती करति हैं। तव श्री- गुसांईजी ने कही, जो-भले.। पाठे. दोऊ जनीं श्रीगुसांईजी के आगे आय वैठीं। तव उन पर कृपा करि कै दोऊन कों नाम दीनो । तब वे दोऊ' नाम पाइ कै वैष्णव भई। पाछे श्री- गुसांईजी को नारियल भेट धरि दंडवत् करि के प्रसन्न मन सों घर को गई । और उन के साथ वा गाम की लुगाई पांच-सात जनीं और हूँ गई हती, श्रीगुसांईजी के दरसन को । सो वेऊ सब ताही समै श्रीगुसांईजी पास नाम पायो । सो वे नाम पाईं के अपने अपने पति के आगे आइ कै सब-समाचार कहे, जो-अब तो हम वैष्णव भई है। श्रीगुसांईजी पास नाम पाया है। तातें अब हमारो और तुम्हारो सब व्यवहार छुट्यो। पाछे वा लरिकिनी के सुसर ने अपनी स्त्री सों; कह्यो। जो- श्रीगुसांईजी.मोहू को नाम देइंगे। सो तूं मोकों उहां ले
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