७४ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता प्रसादी रसोई में महाप्रसाद लेउ ! तब रेडा ने कही, जो महाराज! प्रथम न्यारी रसोई की आज्ञा करी हती। अव महाप्रसाद लेवे की आज्ञा करत हो, ताकौ कारन कहा ? तव श्रीगुसांईजी कहे, जो - तव तिहारे सरीर में सामर्थ्य हतो। तासों न्यारी रसोई की आज्ञा दिये हते । अव महाप्रसाद की आज्ञा करत हैं। भावप्रकाश-यह कहि श्रीगुसांईजी आप यह जताये, जो - सामर्थ्य होई और हमारो लेइ तो वाधक है। अब तुम असक्त भए तातें अब तुम को वाधक- नाहीं । सुखेन महाप्रसाद लेऊ । तब रेंडा श्रीगुसांईजी की आज्ञा मानि के भंडार में बीनाचोंनी करि आवे । श्रीगुसांईजी की सेवा करे । सागघर फूलघर में घरी घरी होई आवें । या भांति सो निर्वाह करें। और एक दिन चाचा हरिवंसजी रात्रि को श्रीगुसांईजी सों यह पालना को प्रसंग पूछे राग : रामकली पंख पर्यक शयनं । चिरविरहतापहरमतिरुचिरमिक्षणं प्रगटय प्रेमायनं । ध्रुव० तनुतरद्विजपंक्तिमतिललितानि हसितानि तव वीक्ष्य गायकीनाम् । यदवधि परमेतदाशया समभवज्जीवितं तावकीनाम् ॥१॥ तोकता वपुषि तव राजते दृशि तु मदमानिनीमानहरणम् । अग्निमे वयसि किमु भाविकामेऽपि निजगोपिकाभावकरणम् ॥२॥ वजयुवतिद्वयकनकाचलानारोढुमुत्सुकं तव चरणयुगलम् । तत्तु मुहुरुन्नमनकाभ्यासमिव नाथ सपदि कुरुते मृदुलमृदुलम् ।।३।। अधिगोरोचनातिलककमलकोद्ग्रथितविविधमणिमुक्ताफलविरचितम् । भूषणं राजते मुग्धतामृतभरस्यंदि वदनंदुरसितम् ॥ ४ ॥ भ्रतटे मातृरचितांजनबिंदुरतिशयितशोभया दृग्दोषमपनयन् । स्मरधनुषि मधु पिवनलिराज इव राजते प्रणयिमुखमुपनयन् ॥ ५ ॥ धार्ता प्रसग-३
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