दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता तब और वैष्णव ने मीरांवाई सों कही, जो - ये तो अपने सेवक विना काहू की भेंट राखे नाहीं है । ता पाछे भेंट फेरि दीनी । तव अजब कुंवरि वाई ने कही, मीरांवाई सों, जो तुम कहो तो हों इनकी सेवकिनी होउं । तव मीरांवाई ने नाहीं करी । ता पाछे दोऊ घर को गई । तव अजव कुंवरि वाई कों महा विरह-ताप भयो और ज्वर आयो । तव मीरांवाई ने पूछ्यो, जो - तोकों कहा भयो ? अव ही तो आछी हती। तव अजव कुंवरि वाई ने कह्या, जो- हों तो श्रीगुसांईजी की सेवकिनी होउंगी। मैं तो उन को दरसन करत साक्षात् श्री- कृष्ण देखे । तातें ताप भयो । तव मीरांवाई ने कही, जो तेरी ईच्छा । पाछे अजव कुंवरि वाई सावधान होइ कै श्री- गुसांईजी सों विनती कराई । जो - महाराजाधिराज ! अजव कुंवरि बाई कहत हैं, जो-मोकों नाम दीजिए। तव श्रीगुसांईजी ने कृपा करि कै अजव कुंवरि को नाम सुनायो । पाठें श्री- गुसांईजी कों विनती करि के अपने घर पधराए । पाठे श्रीगुसांईजी को भली भांति रसोई करवाई । ता पाऊँ श्री- ठाकुरजी कों भोग धरि कै पाछे श्रीगुसांईजी ने भोजन किये। ता पाछे वैष्णव सेवक जो साथ के हते तिन को महाप्रसाद दियो। पाछे थारि को महाप्रसाद अजब कुंवरि वाई को दीनो। सो लेत मात्र सर्व ज्ञान स्फुर्त भयो । ता पाछे श्रीगुसांईजी उत्थापन के समै गादी तकियान पर विराज कै कथा कही। ता समै आत्मनिवेदन को प्रसंग कह्यो। सो अजब कुंवरि बाई ने सुन्यो । तब अजब कुंवरि बाई ने श्रीगुसांईजी सों बिनती कीनी, जो - महाराज ! मोकों कृपा करि कै आत्म-
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