पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१२९

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११४ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र ___'कान्यकुब्ज अबला विलाप' हमने पहचान लिया। यह आपकी प्रतिभा का विलास है ? बतलावें यह कैसे जाना? इस कविता में १९वें, पद्य के अन्तिम दो चरण 'श्रृंगारसुधा' के २६ पद्य के इस अंश के सगे-जोड़े भाई हैं-"जिसने पुरुष जाति को जग में बैल समान बनाया है। सब सहने में कुशल उसी ने तरुणी गण उपजाया है" है न ठीक ? एक जगह २३ प० में आप "चुपकी दाद" लाये हैं, मालूम होता है 'हाली' की चुपको दाद आपकी नजर से गुजर चुकी है ? अस्तु, कविता अच्छी है। कई वर्ष हए बरेली के 'आर्य अनाथालय में भेड़ियों का पाला हआ एक लड़का हमने भी देखा था, उस समय उसकी अवस्था कोई १५-१६ वर्ष की होगी। पर उसकी वहशत नहीं छूटी थी, आदमियों से घबराता था, आंखें दरन्दों की तरह भयानक थीं, उसका नाम था शेरसिंह, अब वह शायद मर गया है। शंकर जी की 'पावस पंचाशिका' बड़ी उत्कृष्ट है, 'सरस्वती' में इनकी कविता देखकर मुझे बड़ा हर्ष होता है ।" चकास्ति योग्येन हि योग्यसंगमः गवा-"रत्नं समागच्छतु कांचनेन" कहावत चरितार्थ हुई है । “पंचाशिका' का एक एक पद्य अपूर्व अपूर्व भाव लिये हुए है। किसी २ पद्य में तो कमाल कर दिया है, इसके ३६वें पद्य ने तो मुझे मुग्ध ही कर दिया। 'अभिज्ञान शाकुन्तल' में शकुन्तला के प्रति दुष्यन्त की उक्ति है :- स्त्रीणामशिक्षितपटुत्वममानुषीणां संदृश्यते किमुत याः परिबोधवत्यः, प्रागन्तरिक्ष- गमनात् स्वमपत्यजातं काकैः' (पाठ याद नहीं है) परभृतः परिपोषयन्ति।"। इसका पूर्वार्द्ध लिखकर एक बार 'विद्योदय' में 'अनामिका बाई' (शायद, रमाबाई) ने कालिदास की सहृदयता पर पाण्डित्य पूर्ण आक्षेप किया था, पर शंकर जी सचमुच इस आक्षेप योग्य पहलू को बड़ी ही चतुरता से बचा गये। और एक अपूर्व-बिलकुल निराली बात बतला गये। धन्यकवे ! वन्दनीयोऽसि !! ... यदि हमें पहले से मालूम होता तो कालिदास के इस श्लोक को नोट में उद्धृत करते की आपसे प्रार्थना करते, जिससे प्रकट हो जाता कि एक ही पदार्थ या घटना से दो प्रतिभाशाली कवि कैसे भिन्न और अपूर्व भाव निकालते हैं, अब भी कभी 'मनोरंजन श्लोक में इसे दीजिए। ... .... लाहौर से उर्दू का एक मासिक पत्र 'मखजन' नामक निकलता है, जो 'सरस्वती' १. अन्य द्विजैः-संपादक