पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्विवेदी जी के पत्र डॉ० बल्देवप्रसाद मिश्र के नाम दांकुरेण चरणक्षत इत्यकाण्डे तन्वीस्थिता कतिचिदेव पदानि गत्वा, आसीद् विवृत्तवदना च विमोचयन्ती आखास बल्कलमसक्तमपि द्रुमाणाम्। मध्य कविता वह है जिसके आस्वादन से विकार जागरण चाहे न हो चित्त चमत्कृत अवश्य हो उठे। अर्थात् उक्ति में चमत्कार या अनोखापन हो । उदाहरण- मैं कवि नहीं इस कारण कहता हूँ- १-जिस विष्णु भगवान ने राहु का सिर काट लिया उसे नमस्कार। इसे सुनकर कवि फटकार बतावेंगा वह कहेगा इस बात को इस तरह कहो- नमस्तस्मै कृतो येन सुधा राहुबधूकुचौ अर्थात् जिस देवता ने राहु की बधू के स्तनद्वय व्यर्थ कर दिये उसे मेरा नमस्कार है। २-वियोग बिधुरा स्त्रियों की कई दशायें होती हैं अन्तिम दशा होती है मौत। एक कवि और सब दशाओं का वर्णन कर चुका पर अन्तिम दशा मरने का नाम तक नहीं लेना चाहता। हाँ, यह जरूर कहना चाहता है कि ईश्वर करे वह जीती रहे। इस बात को वह सीधी तरह न कहकर इस तरह कहता है- दशासु शेषा खलु तद्दशायां तया नभः पुष्यतु कोरकेण ___ अर्थात् उसकी अन्तिमदशा के सूचक आकाश कुसुम वहीं अर्थात् आकाश में खिल उठे। ३-अगर कोई मुझसे पूछे तो मैं यही कहूँगा कि रायगढ़ के राजा या महाराजा साहब में कोई दोष नहीं। उनका एक भी काम अकीर्तिकर नहीं अर्थात् उनमें सब गुण ही गुण हैं उनके सभी काम कीर्तिकर हैं। कवि ऐसे कथन को कौड़ी काम का न समझेगा। वह कहेगा- ..किलाकीर्तयः गीयन्ते स्वरमष्टमं कलयता जातेन बन्ध्योदरान् मूकानां प्रकरण कूर्मरमणीदुग्धोदधे रोधसि ।