सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

करुणा के खत ने माया को जैसे आत्मसात् कर लिया। करुणा और माया दोनों ही शिक्षित बालिकाएँ थीं। परन्तु प्रेम के अभाव से दोनों ही अज्ञात थीं। माया अधिक समझदार थी सही, पर करुणा का यह पत्र तो ऐसा था जिसका आदि-अन्त ही न था। एक सरल-तरल बालिका ने अपनी प्रिय भाभी का आवाहन किया था। उसका अपना मन उससे मिलने को व्यग्र है, पर वह इसे गौण करके भैया के वैकल्य का ही वर्णन करती है। वह इतना जानती है, भाभी पर तो भैया का ही अधिक अधिकार है। पर वह यह विचारने का अवकाश ही नहीं पा रही है कि वह भाभी है ही नहीं। भैया का उससे विवाह हुआ ही नहीं है। भैया ने उसे अस्वीकार कर दिया है। इन सब बातों के लिए उसके मन में स्थान है ही नहीं। और अब, जब भैया ने माया का आह्वान स्वीकार कर लिया, भाभी को लेने जाने को कह दिया तो बस, अब करुणा को सोचने-विचारने की कौन-सी बात रह गई!

करुणा के पत्र में कितनी गहरी आन्तरिक आत्मीयता थी। माया से यह छिपा न रहा। माया ने भी एक दृष्टि ही में करुणा पर अपने को न्यौछावर कर दिया था। फिर दिलीप को तो वह अपना मन दे ही आई है। दिलीप ने ब्याह नहीं किया। वह उसी की मूर्ति का दर्शन एकान्त रात में तारों की टिमटिमाहट में करता है। यह सत्य है या असत्य, माया को इस पर विचारना नहीं पड़ा। उसे वह सब सत्य ही प्रतीत हुआ। और माया ने जैसे अवश होकर, आवेशित होकर यह पंक्ति लिखकर भेज दी।

पंक्ति भेजकर भी माया स्थिर न रह सकी। पिता के प्रति वह साहसी थी। दूसरे ही दिन उसने पिता से बातचीत की। उसने चाय प्याले में उंडेलते हुए कहा, "बाबूजी, चलिए, एक बार दिल्ली घूम आएँ।"

रायसाहब चौंक उठे। उन्होंने कहा, "क्यों? क्या बात है, दिल्ली क्यों जाना चाहती है?"

माया ने बिना इधर-उधर किए कहा, "करुणा का खत आया है। उसने बुलाया है–मेरा भी जी उससे मिलने को चाह रहा है। लिखा है, माताजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। चलिए देख आएँ।"

रायसाहब ने सिर खुजाते हुए कहा, "लेकिन, यह क्या ठीक होगा बेटी, यह बात चलकर खत्म हो गई–अब उसके बाद?"

"तो उससे क्या? हम लोग तो पहले भी गए हैं। कुछ उसी बात पर निर्भर थोड़े ही हैं!" माया ने यह कहने को तो कह दिया, पर उसका मुँह लाल हो गया। बेटी का यह भाव रायसाहब से छिपा नहीं रहा।

उन्होंने कहा, "नहीं, नहीं, यह ठीक नहीं होगा माया! नहीं, तुम करुणा को एक खत लिख दो–यहीं आकर मिल जाए।"

लेकिन माया ने ज़िद करके कहा, "नहीं बाबूजी, चलिए हमीं चलें! मेरा मन दिल्ली देखने को बहुत करता है। उस बार तो देख ही न सकी! इस बार तो एक हफ्ता रहूँगी।"

पिता ने बेटी का मन रखने को कहा, "अच्छा देखा जाएगा। तेरी माँ से सलाह लेनी होगी। कचहरी के काम से भी छुट्टी का मौका देखना होगा। अभी तो दो भारी-भारी केस हैं। दम मारने की भी फुर्सत नहीं है।"

"आठ दिन बाद मुहर्रम की छुट्टियाँ हैं, तभी चलें तो कैसा?"