पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/१२०

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“और भी कुछ है?" "यह दम्भ।" "दम्भ?" “मैंने अभी कहा न था तुम्हारे गुस्से का मूल्य चुका दूँगा। उतनी पूँजी मेरे पास है।" "तो फिर?" “यह दम्भ ही तो है, कोरा दम्भ!" "तो इससे क्या? मैंने तो मूल्य चुकता करने की माँग की नहीं। अभी मुझे जल्दी भी नहीं है, चुकाइए धीरे-धीरे या टाट उलट दीजिए।" "टाट उलटा ही समझो माया, मूल्य मैं न चुका सकूँगा।" "जाने दीजिए। मैं बेबाकी की रसीद देती हूँ, अब ज़रा सो जाइए।" “तुम सब कुछ कर सकती हो। इतना बड़ा ऋण बिना ही चुकाए बेबाकी की रसीद दे सकती हो, अपमानित होकर भी मेरे दर्द पर अपना वरदहस्त रख सकती हो, रात-रात-भर इस अधम के पास बैठी रह सकती हो। निस्सन्देह माया, मैं मूल्य नहीं चुका सकता हूँ, लेकिन मेरी एक अर्ज़दाश्त हैं।" “वह भी कह डालिए।" “मुझे मौका तो दो अब जो भी क्षण जीवन के हैं उन्हें सिर्फ तुम्हारे इन चरणों की पूजा करके बिता दूं।" दिलीप ने सचमुच माया के दोनों पैर उठाकर अपने वक्ष पर रख लिए। “यह क्या, यह क्या!” माया घबराकर उठ खड़ी हुई। दिलीप ने फिर उसे वक्ष पर कसकर कहा, “सिर्फ एक बार कह दो कि तुमने मुझे अपना लिया-बस एक बार।" माया ने आहिस्ता से दिलीप के अंकपाश से छूटकर अपने वस्त्रों को ठीक किया। फिर उसने तनिक मुस्कराकर कहा, “सब कुछ तो करुणा कर चुकी।' “कसकर मुझे बाँध दिया, तुम्हारे पल्ले में। अब छुटकारे की तो कोई राह ही नहीं दिखती।" “तुम छूटने को छटपटा तो नहीं रहीं न?" “तुम क्या देख नहीं रहे?" "तुम्हारे इस 'तुम' ने सब कुछ सिखा दिया। माया, मैं जी गया। तुम कैसे जान सकोगी कि उसी दिन एक क्षण-भर देखने के बाद मेरे रक्त की प्रत्येक बूंद में तुम बस गई थीं। तब से अब तक एक क्षण को भी मैंने तुम्हें भुलाया नहीं और उस दिन जो होश में आने पर अपने पास तुम्हें बैठे देखा तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि तुम जैसे मेरी आँखों में से ही बाहर निकल आकर बैठ गई हो।" माया की आँखों में एक नशा-सा छा गया। उसने आहिस्ता से कहा, "उस दिन तुम्हारी आँखों में मैंने क्या देखा था, जानते हो?" "किस दिन?" "जब हम लोग जा रहे थे और तुम बाल बखेरे पागल की तरह द्वार पकड़े सबसे पीछे खड़े थे।" "तब क्या देखा था तुमने मेरी आँखों में?"