पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/५१

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हँसी उड़ाते थे, पर वह इस बात से नाराज़ नहीं होता था। तब डाक्टर के अनुरोध से उसने एक बात अवश्य की थी कि उसने कांग्रेस में सक्रिय भाग नहीं लिया था। उसने पिता को वचन दिया था कि विद्यार्थी जीवन में राजनीति में नहीं पड़ेगा। राजनीति का वह विद्यार्थी था और विश्वराजनीति में वह गहरी दिलचस्पी ले रहा था। वह महायुद्ध की ज्वालाओं से धधकते हुए संसार को देख चुका था। उसका भावुक कोमल हृदय उससे प्रभावित था। और अब किस तरह राष्ट्र टूट-फूट रहे थे, देश-देशान्तरों की रेखाएँ उलट-पुलट हो रही थीं। भारत में समाज, धर्म, राजनीति और संस्कृति में जो क्रान्तिकारी परिवर्तन हो रहे थे, उन्हें वह देख और समझ रहा था। गाँधीजी के विचारों का वह मनन करता था, और चुपचाप संयम और तप के जीवन को अपनाता जा रहा था। वह चाहता था कि शिक्षा समाप्त करके वह किसी पत्र का सम्पादन करे। पत्रकारिता की ओर उसकी अभिरुचि बहुत थी। उसका लगभग सारा ही फालतू समय सामयिक पत्रों के पठन- पाठन में जाता था। बीच-बीच में वह कुछ लेख भी लिखता था। उसके लेख और कविताओं की सर्वप्रथम प्रशंसक और समर्थक थी करुणा। करुणा को सुनाकर ही वह लेख पत्रों में भेजा करता था। पर ऐसा बहुत कम होता था। वास्तव में उसके बहुत-से लेख तो उसी की फाइल में पड़े रहते थे। कविताओं का भी यह हाल था। एकान्त में वह गुनगुनाता, परन्तु दूसरे के सामने पढ़ने से झेंपता था। करुणा उसकी कविताओं को बड़े चाव से सस्वर पढ़ती, तो वह बहुत खुश होता था। करुणा के मुँह से अपनी कविता की प्रशंसा सुनकर वह गर्व में फूल उठता। कभी-कभी वह ना-ना करता ही रहता और करुणा उसकी कविता की कापी लेकर उसकी नई कविता माँ को सुनाने के लिए माँ के पास भाग जाती। करुणा उन्नीस को पार कर गई थी। वह चिकित्सा-विज्ञान पढ़ रही थी। वह बहुत प्रसन्नचित्त, फुर्तीली और चैतन्य लड़की थी। प्यार तो वह यों सभी भाइयों को करती थी, पर शिशिर पर उसकी अभिरुचि थी। उसे वह एक निरीह-असहाय-सा समझकर जैसे कहीं से करुणा की छोर उस पर डालती थी। दिलीप से वह डरती थी, पर बहस डटकर करती थी। दिलीप की कट्टरता की वह बहुधा खिल्ली उड़ाती थी। उसकी आलोचना बहुधा तीखी हो जाती थी। वह कहती, डूबने दो इस हिन्दूधर्म की नैया, इसका तो बेड़ा ही गर्क होगा। न जाने इसने कितने पाप किए हैं। और सब एक ओर रहें केवल स्त्रियों के आँसुओं के समुद्र में ही वह डूब जाएगा। वह दिलीप को चिढ़ाती भी थी। व्यंग्य भी कसती थी। सच्ची बात तो यह थी कि दिलीप की कोई बात भी उसे पसन्द न थी। उसे वह ढोंगी, पोंगापन्थी कहती थी। कभी कहती, “भैया, तुम घोड़े पर सवार तो हो, पर मुँह तुम्हारा उसकी दुम की ओर है। तुम रूढ़िवादी हो, प्रगतिशील नहीं हो।” इस पर दिलीप कहता, “जा, जा, अपने मेंढकों और खरगोशों को चीर। मेरे मुँह न लग। वाल्मीकि और व्यास को तू क्या समझेगी! हिन्दूधर्म की फिलासफी-" पर इस पर करुणा कहती, रहने दो भैया अपनी फिलासफी, मुझे गुलामों की फिलासफी से नफरत है। फिर, मैं फिलासफी पर विश्वास नहीं करती- विज्ञान पर करती हूँ, तुम्हारी यह फिलासफी कोरा ढकोसला है, महज़ ख्याली पुलाव।' दिलीप गुस्से हो जाता, करुणा हँस देती और मैदान छोड़कर भाग जाती। फिर माँ से आग्रह करके कुछ मिठाई लाकर भाई को देती। दिलीप कहता, “ले जा, नहीं चाहिए मुझे।" तो करुणा कहती, “ज़रा-सी खा लो भैया, बहुत कडुआ हो गया है तुम्हारा मुंह-खट से