पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/६

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सिर्फ पहली तारीख को ही बर्दाश्त किया जा सकता है। उग्र भी शायद गुनगुने हो रहे थे―मैं सोच ही रहा था कि दाढ़ी के बाद अब मेरी बारी आएगी। परन्तु कहाँ? उग्र एकदम उठ खड़े हुए। अपना परिचय दिया, जो कहना-सुनना था, कह गए। परन्तु मेरी बारी तो फिर भी नहीं आई। बारी जैनेन्द्र की। धत्तेरे की! अब मुझे स्वीकार करना पड़ा कि जैनेन्द्र भी मुझसे बड़े साहित्यकार हैं―यद्यपि उम्र में वे भी छोटे हैं। जैनेन्द्र का भाषण आरम्भ हुआ―और मैंने कुछ सोचना आरम्भ कर दिया। पुरानी आदत है; जैनेन्द्र जब बोलने लगते हैं तो मैं किसी विषय का चिन्तन करने लगता हूँ। ध्यान से सुनने-समझने पर भी कुछ पता ही नहीं लगता कि वे क्या कह रहे हैं। बस, यही सोचकर सन्तोष कर लेता हूँ कि कुछ दार्शनिक बातें कर रहे होंगे―जिससे मैं प्याज़ की बू की तरह घबराता हूँ। इसलिए, जैनेन्द्र के भाषण के साथ ही मैं अपने किसी प्रिय को सोचने लगता हूँ। परन्तु उस समय मैं जैनेन्द्र ही की बात सोचने लगा। ज़रूर ही जैनेन्द्र मुझसे बड़े साहित्यकार हैं, तभी तो सब लोग मेरे रहते भी उन्हें ही आगे रखते हैं―जिसमें उन्हें भी कभी संकोच नहीं हुआ। अवश्य ही वे भी ऐसा ही समझते हैं। सोचते-सोचते मन ने कहा―प्रत्येक साहित्यकार का पृथक-पृथक ब्राण्ड है। जैनेन्द्र जलेबी ब्राण्ड साहित्यकार हैं। उनके साहित्य में जलेबी जैसा कुछ चिपचिप चिपकता,कुछ टपकता, कुछ गोल-गोल उलझा, कुछ सुलझा–मीठा-मीठा साहित्य-रस रहता है। बासी होने पर प्रसाद कहकर बेचा जाता है। फिर मेरा ध्यान सामने बैठे उग्र पर पड़ा। निस्संदेह उग्र डंडा ब्राण्ड साहित्यकार हैं―सीधा खोपड़ी पर खींच मारते हैं। फिर वह बिलबिलाया करे, अस्पताल जाए या चूना-गुड़ का लेप करे। और मैं हूँ लाठी ब्राण्ड साहित्यकार―चोट करूँगा तो ठौर करके धर देना ही मेरा लक्ष्य है, साँसें आने का काम नहीं। सामने नज़र उठी तो बनारसीदास चतुर्वेदी रसगुल्लों पर हाथ साफ कर रहे थे। भई वाह, ये हैं बल्ली ब्राण्ड साहित्यकार। जिसका जी चाहे नापकर देख ले। लीजिए साहेब, मैं तो सोचता ही रहा और लोग उठ-उठकर घर चलने भी लगे। हड़बड़ाकर देखा—पार्टी खत्म हो चुकी थी। भाषण और भी हुए थे। कृश्न चन्दर ने जवाब में भी कुछ कहा-सुनी की थी। पर मेरी हिमाकत देखिए―मुझे कुछ पता ही नहीं लगा। अब मैं समझ गया कि क्यों लोग मुझे बुलाते-बुलाते नहीं। परन्तु अब क्या हो सकता था? पछताता-पछताता घर चला आया।

बहुत गुस्सा आ रहा था सब लोगों पर। क्यों नहीं लोग मुझे ऐसी पार्टियां देते? परन्तु कहूँ किससे? मन ही मन खीझ रहा था कि मन ने एक धक्का दिया, कहा―अपनी इतनी पूजा करता है तो दुनिया से क्या? तू खुद अपनी ओर देख, अपना साहित्य रचे जा, अपनी कलम चलाए जा, अपने आँसू बिखेरे जा। अपनी रचना आप ही पढ़। अपनी सम्पदा से आप ही सम्पन्न रह। मगन रह। पार्टी-वार्टी को गोली मार, और उठा अपना कलम। अभी उठा। इस वक्त दिल चुटीला है―ऐसा ही चोट खाकर साहित्यिक वेदनाएँ मूर्त होती हैं। खींच तो एक ‘दर्द की तस्वीर'।

क्या कहा जाए, अपने ही मन की बात टाली नहीं जा सकी। लो साहेब, हद हो गई। हाथ आप ही कलम पर आ पड़ा। कलम था फाउंटेन पैन। इसी साल मेरे चौंसठवें जन्मनक्षत्र पर दिल्ली की प्रगतिशील साहित्य-परिषद् ने मुझे स्नेह-भेंट के रूप में दिया था। इस सम्बन्ध में भी कुछ कहना पड़ा। आज तक किसी भी साहित्यकार, साहित्य-संस्था या साहित्य संघ ने कभी मेरे पास आकर नहीं कहा कि―आ, तुझे हम सम्मानित करें। तेरा