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पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/११६

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मैं इस सिद्धान्त को मानने से इन्कार करता हूँ कि जो कुछ पुराना है वह सब शुभ और माननीय है। मेरा कहना यह है कि जो कुछ हमारे लिये बुद्धि गम्य और शुभ है, वही हमारे लिये माननीय है। और धर्म तथा जातियाँ तो वही जिन्दा रह सकती हैं—जो समय के अनुकूल अपनी प्रगति को तत्कालीन बनाये रक्खें।

हमारी सब से भयानक कुरीति हिंदुओं की विवाह पद्धति है। इस प्रथा की आड़ में अनगिनत पाप, पाखण्ड, अपराध और अन्याय धर्म के नाम पर किये जा रहे हैं।

विवाह का मूल उद्देश्य स्त्री पुरुष का परस्पर आत्म भावना का नैसर्गिक विनिमय है। जिस के आधार पर प्रकृति का प्रवाह चल सकता है। स्वभाव ही से स्त्री पुरुष दोनों मिल कर एक सत्त्व बनता है। अतः समय पर उपयुक्त स्त्री पुरुषों का परस्पर सहयुक्त होना आवश्यक है।

परन्तु यह सहयोग वैज्ञानिक भित्ती पर है। इसका सब से मोटा उदाहरण तो यही है कि सपिण्ड और सगोत्र स्त्री पुरुष संयुक्त नहीं हो सकते। यह बहुत गम्भीर और वैज्ञानिक बात है कि भिन्न रक्त और वंश को मिला कर सन्तानें उत्पन्न की जाये। परन्तु वह विज्ञान तो प्रायः नष्ट कर दिया गया है।

विवाह की प्रथा में सब से ज़्यादा बेहूदा और अधर्म की परिपाटी 'कन्यादान' की परिपाटी है। पिता कन्या को वर के लिए दान देता है। हिन्दू विवाह में यह सर्वाधिक प्रधान बात है। मैं यह कहता हूँ कि कन्या अपने पिता की मेज, कुर्सी या कलम,