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पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/११८

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और पसन्द करने का अवसर भी दिया जाता है। विवाह की वेदी पर कन्या स्वयं वर का स्वागत करती और अध्यपाद्य आदि देती हैं। इसके बाद पिता कन्या दान देता हैं। और तब प्रतिज्ञाऐं या सप्तपदी की क्रियाएँ की जाती हैं। अजी जनाब, मैं यह पूंछता हूं, जब कन्या दान ही कर दी तब प्रतिज्ञाओं का क्या महत्व है? यदि वर वधू प्रतिज्ञाओं से इन्कार कर दे तो क्या कन्यादान वापस हो सकता है? आर्य समाज के पण्डित गण वेद मन्त्रों की व्याख्या करके वर वधू को प्रतिज्ञाओं के अर्थ समझाने की चेष्टा करते हैं। सनातन धर्मी तो एक रस्म पूरी कर के छुट्टी लेते हैं। इसी लिये मैं कहता हूं कि आर्य समाज की विवाह पद्धति ज्यादा आपत्ति जनक है।

यदि मैं यह कहूं कि मनुस्मृति जो वास्तव में मनु की बनाई नहीं है। इस भयानक अनर्थ की जड़ है, तो बेजान साधारणतया यह कहा जाता है कि स्मृतियां वेद के अनुकूल चलती हैं, पर विवाह के मामलों में इस स्मृति ने वेद के नियम के विरुद्ध ही नियम बनाये हैं। यह स्मृति ८ प्रकार के विवाहों को बयान करती है। प्रथम विवाह आर्ष है जिसमे कन्या का पिता अलंकृता कन्या को श्रेष्ठ वर को दान करता है। दूसरा विवाह ब्राह्म है जिसमें पिता एक बैल का जोड़ा लेकर वर को कन्या देता है। तीसरा विवाह दैव है जिस में पुरोहित को दक्षिणा के तौर पर कन्या देदी जाती है। चौथा गन्धर्व है जिस में वर कन्या चुपचाप पति पत्नी भाव से रहने लगते हैं। एक विवाह राक्षस है जिस में रोती