पृष्ठ:नव-निधि.djvu/१०३

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ममता


बाबू रामरक्षादास दिल्ली के ऐश्वर्यशाली खत्री थे, बहुत ही ठाट-बाट से रहनेवाले। बड़े बड़े अमीर उनके यहाँ नित्य आते थे। वे आये हुओं का आदर-सत्कार ऐसे अच्छे ढंग से करते थे कि इस बात की धूम सारे महल्ले में थी। नित्य उनके दरवाजे पर किसी न किसी बहाने से इष्ट-मित्र इकट्ठा हो जाते, टेनिस खेलते, ताश उड़ता, हारमोनियम के मधुर स्वरो से जी बहलाते, चाय-पानी से हृदय प्रफुल्लित करते और अपने उदार मित्र के व्यवहार की प्रशंसा करते। बाबू साहब दिन भर में इतने रंग बदलते थे कि उन पर 'पेरिस' की परियों को भी ईयां हो सकती थी। कई बैंकों में उनके हिस्से थे। कई दुकाने थीं। किन्तु बाबू साहम को इतना अवकाश न था कि उनकी कुछ देखभाल करते ! अतिथि सत्कार एक पवित्र धर्म है। वे सच्ची देश-हितैषिता की उमंग में कहा करते थे ~ अतिथि-सत्कार आदि काल से भारतवर्ष के निवासियों का एक प्रधान और सराहनीय गुण है। अभ्यागतों का आदर-सम्मान करने में हम अद्वि- तीय हैं। हम इसीसे संसार में मनुष्य कहलाने योग्य हैं। हम सब कुछ खो बैठे है, किन्तु जिस दिन हममें यह गुण शेष न रहेगा, वह दिन हिन्दू-जाति के लिए लज्जा, अपमान और मृत्यु का दिन होगा।

मिस्टर रामरक्षा जातीय आवश्यकताओं में भी बेपरवाह न थे। वे सामा-जिक और राजनीतिक कार्यों में पूर्णरूप से योग देते थे। यहाँ तक कि प्रतिवर्ष दो;बल्कि कभी-कभी तीन वक्तृताएँ अवश्य तैयार कर लेते। भाषणों की भाषा अत्यन्त उपयुक्त, प्रोजस्विनी और सर्वांग-सुन्दर होती थी। उपस्थित जन और इष्टमित्र उनके एक-एक शब्द पर प्रशंसा सूचक शब्दों की ध्वनि प्रकट करते, तालियाँ बजाते, यहाँ तक कि बाबू साहब को व्याख्यान का क्रम स्थिर रखना कठिन हो जाता। ब्याख्यान समाप्त होने पर उनके मित्र उन्हें गोद में उठा लेते और आश्चर्य चकित होकर कहते-तेरी भाषा में जादू है। इससे अधिक और