अवश्य वह पण्डित सच्चा और धर्मात्मा पुरुष था। उसमें दूरदर्शिता न हो, काल-शान न हो, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वह निःस्पृह और सच्चा पुरुष था।
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कैसी ही अच्छी वस्तु क्यों न हो, जब तक हमको उसकी आवश्यकता नहीं होती तब तक हमारी दृष्टि में उसका गौरव नहीं होता। हरी दूध भी किसी समय अशफि अशर्फियों के मोल बिक जाती है। कुँवर साहब का काम एक निःस्पृह मनुष्य के बिना रुक नहीं सकता था। अतएव पण्डितजी के इस सर्वोत्तम कार्य की प्रशंसा किसी कवि की कविता से अधिक न हुई। चाँदपार के असामियों ने तो अपने मालिक को कभी किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाया, किन्तु अन्य इलाकोंवाले असामी उसी पुराने ढंग से चलते थे। उन इलाकों में रगड़-झगड़ सदैव मची रहती थी।अदालत,मार-पीट, डाँट-डपट सदा लगी रहती थी। किन्तु ये सब तो जमींदार के शृगार है। बिना इन सब बातों के ज़मींदारी कैसी? क्या दिन- भर बैठे-बैठे वे मक्खियाँ मारें ?
कुँवर साहब इसी प्रकार पुराने ढंग से अपना प्रबन्ध सँभालते जाते थे। कई वर्ष व्यतीत हो गये। कुँवर साइब का कारोबार दिनों दिन चमकता ही गया, यद्यपि उन्होंने पाँच लड़कियों के विवाह बड़ी धूमधाम के साथ किये, परन्तु तिस पर भी उनकी बढ़ती में किसी प्रकार की कमी न हुई। हाँ, शारीरिक शक्तियाँ अवश्य कुछ-कुछ ढीली पड़ती गई। बड़ी भारी चिन्ता यही थी कि इस बड़ी सम्पत्ति और ऐश्वर्य का भोगनेवाला कोई उत्पन्न न हुआ। भानजे, भतीजे, और नवासे इस रियासत पर दाँत लगाये हुए थे।
कुँवर साहब का मन अब इन सांसारिक झगड़ों से फिरता जाता था। आख़िर यह रोना धोना किसके लिए ? अब उनके जीवन नियम में एक परिवर्तन हुआ। द्वार पर कभी-कभी साधु-सन्त धूनी रमाये हुए देख पड़ते। स्वयं भगवद्-गीता और विष्णुपुराण पढ़ते। पारलौकिक चिन्ता अब नित्य रहने लगी। परमात्मा की कृपा और साधु-सन्तों के आशीर्वाद से बुढ़ापे में उनको एक लड़का पैदा हुआ। जीवन की आशाएँ सफल हुईं, पर दुर्भाग्यवश पुत्र के जन्म ही से कुँवर साहब शारीरिक व्याधियों से ग्रस्त रहने लगे। सदा वैद्यों और डाक्टरों का