२
अँधेरी रात थी। सारी दुनिया सोती थी, मगर तारे आकाश में जागते थे। शीतला देवी पलंग पर पड़ी करवटें बदल रही थी और उसकी ननद सारन्धा फर्श पर बैठी हुई मधुर स्वर से गाती थी --
बिनु रघुबीर कटत नहिं रैन ।
शीतला ने कहा—जी न जलायो। क्या तुम्हें भी नींद नहीं आती ?
सारन्धा—तुम्हें लोरी सुना रही हूँ।
शीतला—मेरी आँखों से तो नींद लोप हो गई।
सारन्धा—किसी को ढूँढ़ने गई होगी।
इतने में द्वार खुला और एक गठे हुए बदन के रूपवान् पुरुष ने भीतर प्रवेश किया। यह अनिरुद्ध था। उसके कपड़े भीगे हुए थे, और बदन पर कोई हथियार न था। शीतला चारपाई से उतरकर जमीन पर बैठ गई।
सारन्धा ने पूछा—भैया, यह कपड़े भीगे क्यों हैं ?
अनिरुद्ध—नदी तैरकर आया हूँ।
सारन्धा—थियार क्या हुए?
अनिरुद्ध—छिन गये।
सारन्धा—और साथ के आदमी ?
अनिरुद्ध—सबने वीर-गति पाई।
शीतला ने दबी जबान से कहा, ईश्वर ने ही कुशल किया। मगर सारन्धा के तीवरों पर बल पड़ गये और मुखमण्डल गर्व से सतेज हो गया। बोली—भैया, तुमने कुल की मर्यादा खो दी। ऐसा कभी न हुआ था।
सारन्धा भाई पर जान देती थी। उसके मुँह से यह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और खेद से विकल हो गया। वह वीराग्नि जिसे क्षण भर के लिए अनुराग ने दबा लिया था, फिर ज्वलन्त हो गई। वह उलटे पाँव लौटा और यह कहकर बाहर चला गया कि "सारन्धा, तुमने मुझे सदैव के लिए सचेत कर दिया। यह बात मुझे कभी न भूलेगी।"
अँधेरी रात थी। आकाश-मण्डल में तारों का प्रकाश बहुत धुँधला था। अनिरुद्ध किले से बाहर निकला। पल-भर में नदी के उस पार जा पहुँचा और