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मर्यादा की वेदी


राणा पर झपटे। उन्होंने वार बचा लिया और प्रभा से कहा -- राजकुमारी,हमारे साथ चलोगी?

प्रभा सिर झुकाये राणा के सामने आकर बोली -- हाँ चलूँगी।

रावसाहब को कई आदमियों ने पकड़ लिया था। वे तड़पकर बोले -- प्रभा, तू राजपूत की कन्या है ?

प्रभा की आँखें सजल हो गई। बोली -- राणा भी तो राजपूतों के कुल-तिलक हैं। रावसाहब ने आकर कहा -- निर्लज्जा !

कटार के नीचे पड़ा हुआ बलिदान का पशु जैसी दीन दृष्टि से देखता है, उसी भाँति प्रभा ने रावसाहब की ओर देखकर कहा -- जिस झालावाड़ की गोद में पली हूँ, क्या उसे रक्त से रँगवा दूँ ?

रावसाहब ने क्रोध से काँपकर कहा -- क्षत्रियों का रक्त इतना प्यारा नहीं होता। मर्यादा पर प्राण देना उनका धर्म है।

तब प्रभा की आँखें लाल हो गई। चेहरा तमतमाने लगा।

बोली -- राजपूत-कन्या अपने सतीत्व की रक्षा आप कर सकती है। इसके लिए रुधिर प्रवाह की आवश्यकता नहीं।

पल-भर में राणा ने प्रभा को गोद में उठा लिया। बिजली की भाँति झपटकर बाहर निकले। उन्होंने उसे घोड़े पर बिठा लिया, आप सवार हो गये और घोड़े को उड़ा दिया। अन्य चित्तौड़ियों ने भी घोड़ों की बागे मोड़ दीं। उनके सौ जवान भूमि पर पड़े तड़प रहे थे,पर किसी ने तलवार न उठाई थी।

रात को दस बजे मन्दारवाले भी पहुँचे। मगर यह शोक-समाचार पाते ही लौट गये। मन्दार कुमार निराशा से अचेत हो गया। जैसे रात को नदी का किनारा सुनसान हो जाता है,उसी तरह सारी रात झालावाड़ में सन्नाटा छाया रहा।

चित्तौड़ के रंग-महल में प्रभा उदास बैठी सामने के सुन्दर पौधों की पत्तियाँ गिन रही थी। सन्ध्या का समय था। रंगबिरंग के पक्षी वृक्षों पर बैठे कलरव कर रहे थे। इतने में राणा ने कमरे में प्रवेश किया। प्रभा उठकर खड़ी हो गई।