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नव-निधि

प्रभा सारे दिन अकेली बैठी-बैठी उकताती और झलाती थी। उसके विनोद के निमित्त कई गानेवाली स्त्रियाँ नियुक्त थीं। किन्तु राग रंग से उसे अरुचि हो गई। वह प्रतिक्षण चिन्ताओं में डूबी रहती थी।

राणा के नम्र भाषण का प्रभाव अब मिट चुका था और उनकी अमानुषिक वृत्ति अब फिर अपने यथार्थ रूप में दिखाई देने लगी थी। वाक्यचतुरता शान्तिकारक नहीं होती। वह केवल निरुत्तर कर देती है! प्रभा को अब अपने अवाक् हो जाने पर आश्चर्य होता है। उसे राणा की बातों के उत्तर भी सूझने लगे हैं। वह कभी-कभी उनसे लड़कर अपनी किस्मत का फ़ैसला करने के लिए विकल हो जाती है।

मगर अब वाद-विवाद किस काम का? वह सोचती है कि मैं रावसाहब की कन्या हूँ,पर संसार की दृष्टि में राणा की रानी हो चुकी। अब यदि मैं इस कैद से छुट भी जाऊँ तो मेरे लिए कहाँ ठिकाना है? मैं कैसे मुँह दिखाऊँगी? इससे केवल मेरे वंश का ही नहीं, वरन् समस्त राजपूत जाति का नाम डूब जायगा। मन्दार-कुमार मेरे सच्चे प्रेमी हैं। मगर क्या वे मुझे अङ्गीकार करेंगे? और यदि वे निन्दा की परवाह न करके मुझे ग्रहण भी कर लें तो उनका मस्तक सदा के लिए नीचा हो जायगा, और कभी न कभी उनका मन मेरी तरफ़ से फिर जायगा। वे मुझे अपने कुल का कलंक समझने लगेंगे। या यहाँ से किसी तरह भाग जाऊँ? लेकिन भागकर बाऊँ कहाँ? बाप के घर? वहाँ अब मेरी पैठ नहीं। मन्दार-कुमार के पास? इसमें उनका अपमान है और मेरा भी। तो क्या भिखा-रिणी बन जाऊँ। इसमें भी जगहँसाई होगी और न जाने प्रबल भावी किस मार्ग पर ले जाय। एक अबला स्त्री के लिए सुन्दरता प्राणघातक यन्त्र से कम नहीं। ईश्वर, वह दिन न आये कि मैं क्षत्रिय-जाति का कलंक बनँ। क्षत्रिय जाति ने मर्यादा के लिए पानी की तरह रक्त बहाया है। उनकी हजारों देवियाँ पर-पुरुष का मुंह देखने के भय से सूखी लकड़ी के समान जल मरी हैं। ईश्वर, वह घड़ी न आये कि मेरे कारण किसी राजपूत का सिर लज्जा से नीचा हो। नहीं, मैं इसी कैद में मर जाऊँगी। राणा के अन्याय सहूँगी, जलूँगी, मरूँगी पर इसी घर में। विवाह जिससे होना था, हो चुका। हृदय में उसकी उपासना करूंगी, पर कण्ठ के बाहर उसका नाम न निकालूंगी।