हो गया। परन्तु इन कई महीनों की लगातार कोशिश से जिस बात को भुलाने
में वह किंचित् सफल हो चुकी थी, उसके फिर नवीन हो जाने का भय हुआ।
बोली -- इस समय गाना सुनने को मेरा जी नहीं चाहता।
राजा ने कहा -- यह मैं न मानूँगा कि तुम और गाना नहीं सुनना चाहतीं, मैं उसे अभी बुलाये लाता हूँ।
यह कहकर राजा हरिश्चन्द्र तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गये। प्रभा उन्हें रोक न सकी। वह बड़ी चिन्ता में डूबी खड़ी थी। हृदय में खुशी और रंज की लहरें बारी-बारी से उठती थीं। मुश्किल से दस मिनट बीते होंगे कि उसे सितार के मस्ताने सुर के साथ योगी की रसीलीं तान सुनाई दी
कर गये थोड़े दिन की प्रीति
वही हृदय-ग्राही गग था, वही हृदय-भेदी प्रभाव, वही मनोहरता और वही सब कुछ, जो मन को मोह लेता है। क्षण-एक में योगी की मोहिनी मूर्ति दिखाई दी। वही मस्तानापन, वही मतवाले नेत्र, वही नयनाभिराम देवताओं का-सा स्वरूप। मुखमंडल पर मन्द-मन्द मुस्कान थी। प्रभा ने उसकी तरफ़ सहमी हुई ऑखों से देखा। एकाएक उसका हृदय उछल पड़ा। उसकी आँखो के आगे से एक पर्दा हट गया। प्रेम-विह्वल हो आँखों में आँसू भरे वह अपने पति के चरणारविन्दों पर गिर पड़ी, और गद्गद् कंठ से बोली -- प्यारे ! प्रियतम !
राजा हरिश्चन्द्र को आज सच्ची विजय प्राप्त हुई। उन्होंने प्रभा को उठा कर छाती से लगा लिया। दोनों आज एक प्राण हो गये। राजा हरिश्चन्द्र ने कहा -- जानती हो, मैंने यह स्वाँग क्यों रचा था ? गाने का मुझे सदा से व्यसन है, और सुना है कि तुम्हें भी इसका शौक है। तुम्हें अपना हृदय भेंट करने से प्रथम एक बार तुम्हारा दर्शन करना आवश्यक प्रतीत हुआ और इसके लिए सबसे सुगम उपाय यही सूझ पड़ा।
प्रभा ने अनुराग से देखकर कहा -- योगी बनकर तुमने जो कुछ पा लिया वह राजा रहकर कदापि न पा सकते। अब तुम मेरे पति हो और प्रियतम भी हो। पर तुमने मुझे बड़ा धोखा दिया और मेरी आत्मा को कलंकित किया। इसका उत्तरदाता कौन होगा ?
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