नहीं देते थे कि वह अपनी शोचनीय दशा प्रकट कर सके। वैद्यजी के हृदय के
कोमल भाग तक पहुँचाने के लिए देवदत्त ने बहुत कुछ हाथ-पैर चलाये। वह
आँखों में आँसू भर आता, किन्तु वैद्यजी का हृदय ठोस था, उसमें कोमल भाग
था ही नहीं।
वही अमावास्या की डरावनी रात थी। गगन-मण्डल में तारे आधी रात के बीतने पर और भी अधिक प्रकाशित हो रहे थे; मानों श्रीनगर की बुझी हुई दीवाली पर कटाक्षयुक आनन्द के साथ मुस्करा रहे थे। देवदत्त बेचैनी की दशा में गिरिना के सिरहाने से उठे और वैद्य जी के मकान की ओर चले। वे जानते थे कि लालाजी बिना फीस लिये कदापि नहीं आयेंगे, किन्तु हताश होने पर भी आशा पीछा नही छोड़ती। देवदत्त कदम आगे बढ़ाते चले जाते थे।
३
हकीमजी उस समय अपने रामबाण 'बिन्दु' का विज्ञापन लिखने में व्यस्त थे। उस विज्ञापन की भाव प्रद भाषा तथा आकर्षण-शक्ति देखकर कह नहीं सकते कि वे वैद्य शिरोमणि घे या सुलेखक विद्या-वारिधि --
पाठक, आप उनके उर्दू विज्ञापन का साक्षात् दर्शन कर लें --
'नारीन, आप जानते हैं कि मैं कौन हूँ ? आपका ज़र्द चेहरा, आपका तने
लाग़िर, आपका जरा सी मेहनत में बेदम हो जाना, आपका लज्ज़ात दुनिया में
महरूम रहना, आपकी खाना तारीकी, यह सब इस सवाल का नफ़ी में जवाब
देते हैं। सुनिए, मैं कौन हूँ ? मैं वह शख्स हूँ, जिसने इमराज इन्सानी को पर्दे
दुनिया से ग़ायब कर देने का बीड़ा उठाया है, जिसने इश्तिहारबाज़, जो फ़रोश,
गन्दुमनुमा बने हुए हकीमों को बेख़बर व बुन से ख़ोदकर दुनिया को पाक कर
देने का अज्म बिल् जज्म कर लिया है। मैं वह इतरअंगेज इन्सान ज़ईफ-उलब-
यान हूँ जो नाशाद को दिलशाद, नामुगद को बामुराद, भगोड़े को दिलेर,
गीदड़ को शेर बनाता है। और यह किसी जादू से नहीं, मंत्र से नहीं, यह मेरी
ईज़ाद करदा 'अमृतबिन्दु' के अदना करिश्मे हैं। अमृतबिन्दु क्या है, इसे कुछ मैं
ही जानता हूँ। महर्षि अगस्त ने धन्वन्तरि के कानों में इसका नुस्ख़ा बतलाया
था। जिस वक्त आप वी० पी० पार्सल खोलेंगे, आप पर उसकी हकीक़त रौशन हो
जायगी। यह आबे हयात है। यह मर्दानगी का ज़ौहर, फ़रज़ानगी का अक्सीर,