'पीठम' और 'काया नाटक' १४६ छाया नाटक छाया नाटक की उत्पत्ति कैसे ? नाट्यशास्त्र के संस्कृत के अाधुनिक ग्रंथों में छाया नाटक या तत्सदृश कोई वस्तु नहीं है; परंतु उक्त शास्त्र के सबसे प्राचीन ग्रंथ भरतकृत 'नाट्यशास्त्र' में यह है। 'माहार्याभिनय के संबंध में भरत मुनि कहते हैं- पाहाभिनयो नाम ज्ञयो नेपथ्यमा विधिः । ... ....... .....॥२॥ चतुर्विधं तु नेपथ्य पुस्तोऽलकार एव च | तथागरचना चव ज्ञयः सजीव एव च ॥॥ पुस्तस्तु त्रिविधी झं यो नानारूपप्रमाणतः । सन्धिमो व्याजिमश्चैव चेष्टिमश्च प्रकीर्तितः ॥६॥ किलिश्चवस्त्रधर्माद्ययंद्र प क्रियते बुधैः । सन्धिमो नाम विज्ञ यो पुस्तो नाटक संश्रयः ॥' अर्थात नेपथ्य विधि-वेशभूषा (रचना) ही आहार्याभिनय है और वह चार प्रकार की है-(१) पुस्त, (२) अलंकार, (३) अंग- रचना तथा ( ४ ) संजीव । पुस्त तीन प्रकार का है-(१) संधिम, (२) याजिम तथा (३) चेटिम । वस्त्र, धर्म आदि वस्तुओं से 'बुध' लोग जो कृत्रिम रूप बनाते हैं ( वस्त्र चर्मादि से मनुष्य, पशु, पक्षी आदि बनाते हैं) उसे 'संघिम' कहते हैं। इन चारों नेपथ्यों की परस्पर अनुप्राहकता है, परंतु 'संघिम' की 'संजोष' से विशेष रूप से । 'सजीव' के संबंध में भरत मुनि लिखते हैं- सजीव इति यः प्रोक्तस्तस्य वक्ष्यामि लक्षणम् ॥११॥ यः प्राणिनां प्रवेशो ये स सजीव इति स्मृतः। चतुष्पदोऽथ द्विपदस्तषा चैवापदः स्मृतः ॥१५॥ अर्थात् रंगमंच पर प्राणियों के प्रवेश को 'संजीव' कहते हैं। 'संधिम' और 'संजीव' की अनुप्राहकता यह है कि आवश्यकतानुसार वस्त्र, चर्मादि के कृत्रिम रूपों-अनुकरणों का भी प्रवेश भावश्यक होता होगा। साधा- रणतया 'संधिम से छाया नाटक का कोई संबंध ज्ञात नहीं होता; परंतु वस्तुतः इसमें ही छाया नाटक का इंगित है। ऊपर उदघृत 'यद्रपंक्रियते बुधैः' पर ध्यान दीजिए। इससे यह अनुमान तो सहज हो है कि जैसे प्राजकल नाटक डलियों के लिये भाव- श्यक वस्तुएँ-दाढ़ी, मूंछ प्रादि-बनती और विकती है वैसे ही पहले १-अध्याय २३.काशी संस्कन सारीज सस्करण।
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