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नाट्यसम्भव।

जौलों रवि ससि निज अधिकाहिं-
सेवैं सुभग मयूखन।
तौलों ह्वै है तुमरी कीरति-
अखिल लेक की भूखन॥

(सब कान लगा कर सुनते हैं)

रैवतक। गुरूजी! यह किसने किससे कहा?

भरत। (हर्ष सहित) अहा! अप्सराओं ने भी हमें वरदान दिया। क्यों न हो! यह सब भारतीश्वरी देवी की अनन्त दया का प्रत्यक्ष फल है। (मन में) तो अब इन्द्र को समाचार देकर नाटक खेलने का प्रबंध करें? परन्तु उसके पास किसे भेजें? ( सोचकर ) वहां दमनकही को भेजना उचित है । यद्यपि यह बालक चंचल और ढीठ है पर बकवादी और हंसोड़ भी है इस समय ऐसेही स्वभाव वाले पुरुष से इन्द्र का जी धहलैगा और वह इसकी चपलता वा ढिठाई से रुष्ट न होकर वरन और भी प्रसन्न होगा (प्रगट) अरे दमनक!

दमनक। हां गुरुजी!

भरत तू इन्द्र को देखैगा?

दमनक। (आश्चर्य से) ऐ कहां! इन्द्र है?

भरत। उतावला न हो, सुन! तू इन्द्र से जाकर यह कह कि भगवतीने गुरूजी को नाव्यविद्या दी है, उसी से आज