पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५६
नाट्यसम्भव।


सांप छछूंदर के फेर में पड़े हैं। जायं इन्द्र के नांव भी झींख आवैं (उठकर भय नाट्य करता हुआ) अरे! यह स्वर्ग है कोई शापवापं न देदे। (अपने मुंह में तमाचा मार और कान मलकर) सावधान, सावधान अरे! गुरूजी को क्या सूझा था जो हमें ऐसे पहले में संसा गए। यहां से जीते जागते जब अपने घर पहुंचेंगे तब जानेंगे कि हम जिन्दों में हैं। पर न जाने अभी कितना करम भोग भोगना बाकी है। अच्छा चलो दाताराम! चलो! देखा जायगा (अँगड़ाई लेता गिरता पड़ता बड़बड़ाता हुआ जाता है)

परदा गिरता है।

इति पांचवां दृश्य।