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पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/७३

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नाट्यसम्भव।

हां क्या कहा? (सोच कर ) बहुत ठीक अव समझे

(प्रिय बिछोह की भांति इत्यादि पढ़ता है)

(द्वारपाल आता है)

द्वारपाल। (आगे बढ़कर) स्वामी की जय होय ।

इन्द्र। (चौंक कर ) क्या है पिंगाक्ष !

द्वारपाल। हे नाथ ! देवताओं के गुरू और स्वर्ग के मंत्री वृहस्पति का भेजा एक दूत आया है।

इन्द्र। क्या संदेसा लाया है?

द्वारपाल। यही कि "आज कल्पवृक्षवाटिका में सब देवता एकत्र होंगे, इसलिए प्रार्थना की है कि सन्ध्या पीछे वहां पर श्रीमान श्री अवश्य अपने सिंहासन पर विराजमान हों।

इन्द्र। अच्छा। उससे कहा कि हमने निमंत्रण स्वीकार किया।

द्वारपाल। जो आज्ञा (गया)

इन्द्र। यद्यपि जव से प्यारी का विछोह भया है तब से हम मक्षा में नहीं बैठे हैं, पर इससे हमारी निन्दा छोड़ कर बड़ाई कोई भी नहीं करता। हमारे ऐसे मनुष्य को किसी अवस्था में भी कर्तव्य से हाथ न बैंचना चाहिये । भरतमुनि के उपदेश का भी यही निचोड़ है। पर क्या करें, चित्त जब विकल होता है तो एक नहीं सुनता। (टहर का) देखो! देखते देखते