पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/८

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श्रीहरिः।

श्रीश्रीवाग्देवतायै नमः।

नाट्यसम्भव।

रूपक।

प्रस्तावना।

(नाट्यशाला का परदा उठता है)

दोहा।

जग सिरजै, मेटै, भरै, सदा नाटकाकार।
सूत्रधार संसार को मंगलमय निरधार॥


सूत्रधार। (नांदी पढ़कर) अहा! आज हमारा कैसा सुप्रभात है कि बहुत दिनों पर फिर नाटक खेलने के लिए बुलाए गए। हा! एक दिन वह भी था कि रात दिन इस काम के मारे सांस नहीं मिलती थी और एक दिन यह भी है कि खाली हाथ घर बैठे बरसों बीत जाते हैं, पर नाटक खेलने के लिए कोई पूछता-ही नहीं। इससे केवल हिन्दी भाषा कीही अवनति नहीं होती, बरन संग २ हिन्दूसमाज का भी अधःपतन हुआ जाता है। चिल्लाते २ थकगए तौ भी ऐसा