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नारी समस्या
 

की बनावट और सजावट आ जाती है; उसी प्रकार मानसिक विचारों में भी परिवर्तन हो जाता है। कई लड़कियों को मैंने देखा कि वे पीहर के मुहल्ले में पाँव रखते-रखते घूँघट खोल लेती हैं और सन्तोष की साँस लेती हैं। यह मुहल्ला उन्हें अपना और ससुराल का मुहल्ला पराया सा लगता है। घूँघट के सम्बन्ध में और भी बहुतसी दलीलें दी जाती हैं; किंतु उनका लज्जा से क्या सम्बन्ध, यह समझ में नहीं आता। घूँघट तो हाव-भाव का एक साधन है। नर्त्तकिया बड़ी चतुरता के साथ इसका उपयोग करती हैं। झीना कपड़ा मुख की शोभा को अधिक बढ़ा देता है। हमारी बहू-बेटिया भी संबंधियों को देखते ही झटके के साथ मुँह पर घूँघट खिसका लेती हैं और छल्ला मार कर आँखें निकाल देखने लगती हैं। घरवालों को यह अस्वाभाविक और बनने की रीति कैसे पसन्द आती है और सहन होती है? दूसरे देशों के लोगों को ही नहीं, बहुत से भारतीयों को भी यह देख कर क्षोभ होगा।

कुछ लोग परदे को तो विशेष महत्व नहीं देते किंतु वे स्त्रियों को इसलिये बाहर निकालना नहीं चाहते कि वे जंगली हैं, मूर्ख हैं और फूहड़ हैं। उनका कहना है कि पहिले शिक्षित और योग्य बनने दीजिये, बाद में बाहर निकालने की बात चलाइये। किंतु वे ही लोग जंगली और मूर्ख पुरुषों के बारे में ऐसा नहीं कहते। उनका बाहर निकलना अनुचित नहीं ठहराते। यह भेद क्यों? परदे वाली स्त्रियों की रुचि पुरुषों की सेवा करने और सजधज कर उनको रिझाने के लिये खिलौना बनने के सिवा दूसरी ओर नहीं जा सकती। वे यदि पढ़ी-लिखी और चतुर भी होंगी तो भी उनकी सारी शक्ति उस संकुचित परिधि में ही नष्ट हो जायगी। समाज, राष्ट्र अथवा साहित्य की ओर आँख उठा कर देखने का भी उन्हें अवकाश न मिलेगा। उनका व्यक्तित्व ही न रह जयेगा और बिना व्यक्तित्व के ऊपर उठना कैसा? गुलाम स्त्रियों से समाज की भलाई अथवा राष्ट्र की आज़ादी में योग देने की माँग करना वैसा ही है जैसा ब्रिटिश सरकार का भारतीयों से युद्ध में सहायता माँगना। स्त्रियों की ओर से भी इसका उत्तर वही होगा जो भारतीय नेताओं ने सस्कार को दिया--"हम गुलाम तुम्हारी सहायता क्या करें? पहिले हमें स्वतन्त्र होने दो, समानता का पद दो, कुछ करने योग्य बनने दो, तब देखा जायगा।"

बड़े-बूढ़े लोग परदे को पारिवारिक शिष्टाचार और मान-मर्यादा का अंग समझते हैं। वे सोचते हैं कि बहू के घूँघट खोल देने से उनकी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल