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नारी समस्या
 

वे आत्म-सम्मान की रक्षा तथा उदर-पूर्ति के लिये परमुखापेक्षी न होतीं। फिर क्या सभी पुरुष स्त्रियों को गहने गढ़ा देते हैं ? क्या सभी उन्हें अच्छा खिलाने-पहिनाने की सामर्थ्य रखते हैं ? क्या नीची से नीची कही जाने वाली जातियों में भी स्त्रिया स्वयं परिश्रम करके पुरुषों से अच्छा नहीं कमा लेती ? फिर पुरुषों की थाली की बची हुई जूठन खाना स्त्रियों के लिये सौभाग्य की बात क्यों बताई जाती है? घर में एक ही पलँग और एक ही बिस्तर होने पर पुरुष उसका अधिकारी माना जाता है और स्त्री को “मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता" का पाठ करना पड़ता है । फिर भी उसके मन में संघर्ष नहीं होता; क्योंकि ऐसा करना वह अपना धर्म समझती है। समाज ने उसे यही सिखाया है । वह रोकर भी हँसती है, भूखी रहकर भी डकारें लेती है। यह सब किस लिये ? क्या गहने के लोभ से ? नहीं, कर्तव्यवश। निर्धन-वर्ग में स्त्रिया जो कुछ कमाती हैं उसे पुरुष ले लेते हैं और मनमाना खर्च करते हैं किंतु जब वही कमानेवाली स्त्री कहती है कि मेरी साड़ी फटी है, दूसरी ले दीजिये तो उसे डाँट-फटकार सहन करनी पड़ती है। पुरुष भले ही सारे पैसे चरस, गाँजे और शराब में उड़ा दे। स्त्री यह सब सहन करती है। किस लिये ? गहने- कपड़ों के लिये या शारीरिक शक्ति की कमी के कारण ? नहीं, लाखों स्त्रिया सशक्त होने पर भी अपाहिज और लुले-लँगड़े पतियों के चरणों में अपना जीवन सहर्ष बिता देती हैं क्योंकि वे समझती हैं कि-

वृद्ध, रोगबस, जड़, धनहीना,
अंध, बधिर, क्रोधी, अतिदीना ।
ऐसेहु पतिकर किय अपमाना,
नारि पाव यमपुर दुख नाना ।

उन्हें तुलसीदासजी जैसे महात्माओं पर श्रद्धा है; किंतु इस श्रद्धा का दुरुपयोग ठीक नहीं। जिस दिन वे समझ जायँगी कि हमारे शील का दुरुपयोग हो रहा है,वह गुण न रहकर दुर्गुण बन गया है, पुण्य नहीं पाप हो गया है, उसके कारण उनका अपमान होता है,उनकी सेवाओं के फल स्वरूप उन्हें यम-यातना भोगनी पड़ती है और पद-पद पर आत्मापमान सहन करना पड़ता है; तब वे अपना सच्चा स्वरूप पहचानेंगी और तभी नारी-शक्ति उद्बोधित हो उठेगी । तब वे काल्पनिक स्वर्ग के चक्र में न पड़ कर पहिले वर्तमान रौरव से पीछा छुड़ाने को आकुल हो उठेंगी । उस आकुलता में कहीं अनर्थकारी तत्व ने आ मिलें, इसलिये समय रहते पुरुष-जाति का सावधान हो जाना उचित है । कविवर श्री.