जिस आध्यात्मिक देश में कवि, चित्रकार, योगी, पीर, पैगंबर,औलिया विचरते हैं और किसी और को घुसने नहीं देते, वह सारे का सारा देश इन आम लोगों के प्रेमाश्रुओं से घुल घुल कर बह रहा है। आओ, मित्रों ! स्वर्ग का आम नीलाम हो रहा है।
सर वाल्टर स्काट अपनी "लेडी आव दि लेक" नामक कविता में बड़ी खूबी से उन अश्रुओं की प्रशंसा करते हैं जो अश्रु पिता अपनी पुत्री को आलिंगन करके उसके केशों पर मोती की लड़ी की तरह बखेरता है। इन अश्रुओं को वे अद्भुत दिव्य प्रेम के अश्रु मानते हैं। सच है, संसार के गृहस्थ मात्र के संबंधों में पिता और पुत्री का संबंध दिव्य प्रेम से भरा है। पिता का हृदय अपनी पुत्री के लिये कुछ ईश्वरीय हृदय से कम नहीं।
पाठक, अब तक न तो आपको और न मुझे ही ऊपर लिखी हुई बातों का ऊपरी दृष्टि से कन्यादान के विषय से कुछ संबंध मालूम होता है। तो उसका कारण केवल यह है कि ऊपर और नीचे का लेख लेखक की एक विशेष देश-काल-संबंधी मनोलहरी है। पता लगे चाहे न लगे, कन्यादान से संबंध अवश्यमेव है।
एक समय आता है जब पुत्री को अपने माता-पिता का घर छोड़कर अपने पति के घर जाना पड़ता है।