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कन्यादान

की हँसली मान बैठे हैं। वे कहते हैं कि क्या कन्या कोई गाय, भैंस या घोड़ो की तरह बेजान और बेजबान वस्तु है जो उसका दान किया जाता है। यह अल्पज्ञता का फल है-सीधे और सच्चे रास्ते से गुमराह होना । ये लोग गंभीर विचार नहीं करते । जीवन के आत्मिक नियमों की महिमा नहीं जानते । क्या प्रेम का नियम सबसे उत्तम और बलवान नहीं है ? क्या प्रेम में अपनी जान को हार देना सबके दिलों को जीत लेना नहीं है । क्या स्वतंत्रता का अर्थ मन की बेलगाम दौड़ है, अथवा प्रमाग्नि में उसका स्वाहा होना है ? चाहे कुछ कहिए, सच्ची आजादी उसके भाग्य में नहीं, जो अपनी रक्षा खुशामद और सेवा से करता है। अपने आपको गंवाकर ही सच्ची स्वतंत्रता नसीब होती है। गुरु नानक अपनी मीठी जबान में लिखते हैं :-"जा पुच्छा सुहामनी किनो गल्ली शौह पाइए । आप गँवाइए ताँ शौह पाइए और कैसी चतुराई"-अर्थात् यदि किसी सौभाग्यवती से पूछोगे कि किन तरीकों से अपना स्वतंत्रता-रूपी पति प्राप्त होता है तो उससे पता लगेगा कि अपने आपको प्रमाग्नि में स्वाहा करने से मिलता है और कोई चतुराई नहीं चलती। ऐसी स्वतंत्रता प्राप्त करना हर एक आर्यकन्या का आदर्श है। सच्चे आर्य-पिता की पुत्री गुलामी, कमजोरी और कमीनेपन के लालचों से सदा मुक्त है । वह देवी तो यहाँ संसार- रूपी सिंह पर सवारी करती है। वह अपने प्रेम-सागर की