पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सच्ची वीरता १०७ 1 अपने आपको हर घड़ी और हर पल महान् से भी महान बनाने का नाम वीरता है । वीरता के कारनामे तो एक गौण बात हैं । असल बीर तो इन कारनामों को अपनी दिनचर्या में लिखते भी नहीं । पेड़ तो जमीन से रस ग्रहण करने में लगा रहता है उस यह ख्याल ही नहीं होता कि मुझमें कितने कल या फूल लगेंगे और कब लगेंगे। उसका काम तो अपने आपको सत्य में रखना है--सत्य को अपने अंदर कूट कूट कर भरना है और अंदर ही अंदर बढ़ना है। उसे इस चिंता से क्या मतलब कि कौन मेरे फल खायगा या मैंने कितने फल लोगों को दिए। वीरता का विकास नाना प्रकार से होता है। कभी तो उसका विकास लड़ने-मरने में, खून बहाने में, तलवार-तोप के सामने जान गंवाने में होता है; कभी प्रेम के मैदान में उसका मंडा खड़ा होता है । कभी जीवन के गूढ़ तत्त्व और सत्य की तलाश में बुद्ध जैसे राजा विरक्त होकर बीर हो जाते हैं कभी किसी आदर्श पर और कभी किसी पर वीरता अपना फरहरा लहराती है । परंतु वीरता एक प्रकार का इलहाम गा देवी प्रेरणा है । जब कभी इसका विकास हुआ तभी एक नपा कमाल नजर आया; एक नया जलाल पैदा हुआ; एक नई रौनक, एक नया रंग, एक नई बहार, एक नई प्रभुता संसार में छा गई । वीरता हमेशा निराली और नई होती है। नया- पन भी वीरता का एक खास रंग है। हिंदुओं के पुराणों की 1