सच्ची वीरता ११७ आजकल भारतवर्ष गया। खड़ा हुआ वह विजयी हा गया । अाजकल लोग कहते हैं कि काम करो, काम करो। पर हमें तो ये बातें निरर्थक मालूम होती हैं। पहले काम करने का बल पैदा करी-अपने अंदर ही अंदर वृक्ष की तरह बढ़े। में परोपकार करने का बुखार फैल रहा है। जिसका १०५ डिग्री का यह बुखार चढ़ा वह श्राज फल के भारतवर्ष का ऋषि हो अाजकल भारतवर्ष में श्रावबारों की टकसाल में गढ़े हुए वीर दर्जनों मिलन है। जहाँ किपी ने एक-दो काम किए और आगे बढ़कर छाती दिखाई तहाँ हिंदुस्तान के सारे अखबारों ने "हीरो" और "महात्मा" की पुकार मचाई। बस एक नया वीर तैयार हो गया। ये ता पाग नपन को लहरें हैं। अवबार लिखनवाले मामूली सिक्के के मनुष्य होते हैं। उनको स्तुति और निंदा पर क्यों मरे जाने हो ? अपने जीवन को अवबारों के छोटे छोटे पैगग्राफी के ऊपर क्यों लटका रहे हो ? क्या यह सच नहीं कि हमारं आजकल के वोरों की जान अखबारों के लेखों में है ? जहाँ इन्होंने रंग बदला कि हमारे वारों के रंग बदले, पाठ सूख और वीरता को अशाएँ टूट गई प्यार, अंदर के कंद्र को ओर पानी चाल उलो और इस दिखावटी और बनावटी जोवन की चंचलना में अपने आपको न खो दो। वीर नहीं तो वोरों के अनुगामी हे। और वीरता के काम नहीं ते। धीरे धीरे अपने अंदर वीरता के परमाणुओं का जमा करो।
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