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आचरण की सभ्यता

बचाने के लिये काई उपाय नहीं करता। क्या उस के आचरण का यह अंश मेरे-तेरे बिस्तर और आसन पर बैठे बिठाए कहे हुए निरर्थक शब्दों के भाव से कम महत्त्व का है ?

न मैं किसी गिरजे में जाता हूँ और न किसी मंदिर में; न मैं नमाज पढ़ता हूँ और न रोजा ही रखता हूँ; न संध्या ही करता हूँ और न कोई देवपूजा ही करता हूँ; न किसी आचार्य के नाम का मुझे पता है और न किसी के आगे मैंने सिर ही झुकाया है। इन सबसे प्रयोजन ही क्या और हानि भी क्या ? मैं तो अपनी खेती करता हूँ ; अपने हल और बैलों को प्रातःकाल उठकर प्रणाम करता हूँ ; मेरा जीवन जंगल के पेड़ों और पक्षियों की संगति में बीतता है ; आकाश के बादलों को देखते मेरा दिन निकल जाता है । मैं किसी को धोखा नहीं देता ; हाँ, यदि, मुझे काई धोखा दे तो उससे मेरी कोई हानि नहीं । मेरे खेत में अन्न उग रहा है; मेरा घर अन्न से भरा है ; बिस्तर के लिये मुझे एक कमली काफी है, कमर के लिये लँगोटी और सिर के लिये एक टोपी बस है। हाथ-पाँव मेरे बलवान् हैं ; शरीर मेरा नीरोग है ; भूख खूब लगती है; बाजरा और मकई, छाछ और दही, दूध और मक्खन मुझे और मेरे बच्चों के लिये खाने को मिल जाता है । क्या इस किसान की सादगी और सचाई में वह मिठास नहीं जिसकी प्राप्ति के लिये भिन्न भिन्न धर्म संप्रदाय लंबी-चौड़ी और चिकनी-चुपनी बातों द्वारा दीक्षा दिया करते हैं ?