निबंध-रत्नावली
आपके न थे। वे तो पृथ्वी से निकली हुई धातु के टुकड़े थे; अतएव ईश्वर के निर्मित थे । मजदूरी का ऋण तो परस्पर की प्रेम-सेवा से चुकता होता है, अन्न-धन देने से नहीं। वे तो दोनों ही ईश्वर के हैं । अन्न-धन वही बनाता है और जल भी वही देता है । एक जिल्दसाज ने मेरी एक पुस्तक की जिल्द बांध दी । मैं तो इस मजदूर को कुछ भी न दे सका। परंतु उसने मेरी उम्र भर के लिए एक विचित्र वस्तु मुझे दे डाली । जब कभी मैंने उस पुस्तक को उठाया, मेरे हाथ जिल्दसाज के हाथ पर जा पड़े। पुस्तक देखते ही मुझे जिल्दसाज याद आ जाता है। वह मेरा आमरण मित्र हो गया है, पुस्तक हाथ में आते ही मेरे अंतःकरण में रोज भरतमिलाप का सा समाॅं बंध जाता है।
गाढ़े की एक कमीज को एक अनाथ विधवा सारी रात बैठकर सीती है। साथ ही साथ वह अपने दुख पर रोती भी है-दिन को खाना न मिला। रात को भी कुछ मयस्सर न हुआ। अब वह एक एक टाॅंके पर आशा करती है कि कमीज कल तैयार हो जायगी; तब कुछ तो खाने को मिलेगा । जब वह थक जाती है तब ठहर जाती है। सुई हाथ में लिए हुए है, कमीज घुटने पर बिछी हुई है, उसकी आँखों की दशा उस आकाश की जैसी है जिसमें बादल बरसकर अभी अभी बिखर गए हैं। खुली आँखें ईश्वर के ध्यान में लीन हो रही हैं। कुछ काल के उपरांत "हे राम" कहकर उसने फिर सीना शुरू कर दिया। इस माता और इस बहन की सिली हुई