सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५०
 

निबंध-रत्नावली

यही इरादा है कि मनुष्य की अनमोल आत्मा में ईश्वर के दर्शन करेंगे । यही आर्ट है-यही धर्म है। मनुष्य के हाथ ही से तो ईश्वर के दर्शन करानेवाले निकलते हैं। मनुष्य और मनुष्य की मजदूरी का तिरस्कार करना नास्तिकता है । बिना काम, बिना मजदूरी, बिना हाथ के कला-कौशल के विचार और चिंतन किस काम के ! सभी देशों के इतिहासों से सिद्ध है कि निकम्मे पादड़ियों, मौलवियों, पंडितों और साधुओं का, दान के अन्न पर पला हुआ ईश्वर चिंतन, अंत में पाप, आलस्य और भ्रष्टाचार में परिर्वतित हो जाता है। जिन देशों में हाथ और मुंह पर मजदूरी की धूल नहीं पड़ने पाती वे धर्म और कलाकौशल में कभी उन्नति नहीं कर सकते । पद्मासन निकम्मे सिद्ध हो चुके हैं। यही आसन ईश्वर-प्राप्ति करा सकते हैं जिनसे जोतने, बोने, काटने और मजदूरी का काम लिया जाता है । लकड़ी, ईट और पत्थर को मूर्तिमान करनेवाले लुहार, बढ़ई, मेमार तथा किसान आदि वैसे ही पुरुष हैं जैसे कि कवि, महात्मा और योगी आदि । उत्तम से उत्तम और नीच से नीच काम, सबके सब प्रेमशरीर के अंग हैं।

निकम्मे रहकर मनुष्यों की चिंतन-शक्ति थक गई है। बिस्तरों और आसनों पर सोते और बैठे मन के घोड़े हार गए हैं । सारा जीवन निचुड़ चुका है। स्वप्न पुराने हो चुके हैं। आजकल की कविता में नयापन नहीं । उसमें पुराने जमाने की वविता की पुनरावृत्ति मात्र है । इस नक्ल मे अस