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निबंध-रत्नावली

निवासियों के हृदय को दुखाना है या क्लेश देना है। मेरा अभिप्राय कुछ है, परंतु किसी दशा में भी वह नहीं, जो बता चुका हूँ।

दुनिया की छत पर खुश खड़ा हूँ तमाशा देखता ।

गाहे ब गाहे देता रहा हूँ बहशियों की सी सदा ॥

मेरी तो एक "बहशियों की सी सदा" है। सुनो या न सुनो इससे कुछ प्रयोजन नहीं, ईशवर की इस लीला में आप वहाँ रहते हैं, मैं यहाँ रहता हूँ। इसलिये क्षमा माँगकर अब मैं अपनी दृष्टि, अपने ऐसे ही माने हुए देश की ओर फेरकर जो देखता हूँ वह बेधड़क कहे देता हूँ।

त्याग, वैराग्य और इनके अनर्थ

देश में, पता नहीं, न जाने कहाँ से किधर से कैसे और क्यों अपवित्रता आ गई है कि हमारे हाथ ऋषियों का इतना बड़ा आदर्श-त्याग और वैराग्य का आदर्श-मटियामेट हो गया ? महात्मा बुद्ध ने त्याग किया, ईसा ने त्याग किया, शंकर ने त्याग किया, रामकृष्ण परमहंस ने त्याग किया, स्वामी दयानंद ने त्याग किया, स्वामी राम ने त्याग किया, भर्तृहरि ने त्याग किया, गोपीचंद ने त्याग किया, पूर्णभक्त ने त्याग किया और वैराग्य का बाना लिया। बस अब किसान भी हल जोतने को त्याग उनका सा रूप सँवार चले गंगातट को, चले हृषीकेश को। वहाँ अन्न मुफ्त मिलता है। छोटे छोटे बालक और नवयुवक भी कूदे। अहह ! आदश