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निबंध-रत्नावली

पकड़ी, आँख मूँद बैठे, ध्यान होने लगा है ! भजी ! ध्यान किस वस्तु का ? किस स्वरूप को देखने को आँखें मूँदी है ? वहाँ तो कुछ नहीं, मन कैसे लगे? एक दो घंटे मन को बेलगाम दौड़ाकर “शांतिः शांतिः शांति:" कर योगीजी नजर जमीन पर लगाए हुए हैं। वह किमी अँगरेज के दफ्तर के हेडक्लर्क जा रहे हैं। कलम जब चलती है, दूसरों का गला काटती है। लिखते तो ठीक मेलट्रेन की तरह हैं। क्यों न हो ? योग का बल हाथ में है।

पतंजलि महाराज ने अपना ग्रंथ मनुष्यों के लिये लिखा था । पशु तो उसका पाठ भी नहीं कर सकते । पतंजलि महाराज कृपा-कटाक्ष से आपको कुछ बुद्धि उत्पन्न हो गई थी। मैंने तो पक्षियों और पशुओं को भी जप तप संयम का साधन करते देखा । यह महाग्रंथ काठ के पुतलों के लिये कदापि नहीं लिखा गया जिनके हाथ में माला आई और सहस्रों वर्ष व्यतीत हुए । माला के मनक ही फिर रहे हैं। जप के साधनों का भी अंत नहीं हुआ। कुटिलता नीचता, कपटता अंदर भरी हुई है और माला मनकों के ऊपर से हजारों बार चली जाती है और इतनी सदियाँ हुई अब तक चली ही जा रही है । जब तक हम मनुष्य नहीं बन जाते तब तक तुम्हारे लिय कल्याण का साधन न कोई गुरु, न कोइ वेद, न कोई शास्त्र, न कोई उपदेश हो सकता है।

इसका सबूत चाहो तो इस बाहर से माने हुए भारत- निवासियो के मकान, गली-कूचे, घर का जीवन और सदियों