पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२५७

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(१३) संगीत

मुझे इतना समय नहीं रह गया है कि आपके सामने ऐसी कहावतें रखूॅं कि रोना और गाना सबको आता है; न मेर यही रुचि है कि संगीत न जाननेवाले को द्विपद मृग और पुच्छविषाणहीन पशु बतानेवाले श्लोक यहाँ पर उद्धृत करूँ और इसके लिये भी समय अनुकूल नहीं है कि ऐसे वाक्यों के प्रमाण दूं जिनमें कहा गया है कि शिशु, पशु और सपे ही गोत का रस जानते हैं या साक्षात् शंकर ही जानते हैं, और विष्णु ने कहा है कि मैं, न तो वैकुण्ठ में रहता हूँ और नी योगियों के हृदय में, परंतु मेरे भक्त जहाँ गाते हैं वहीं मैं रहता हूँ। मेरा प्रयोजन आज यह कहने से भी नहीं है कि ब्रह्मा के सामगान और विष्णु के वंशीवादन और शंकर के तांडवनृत्य को और सरस्वती की वीणा को सामने धरकर गीत वाद्य नाटय का दैव रूप आपको दिखाऊँ। मुझे केवल दो बातें कहनी है।

एक तो यह कि भारतवर्ष की वर्तमान उन्नति में जिस समाज वा जिस प्रांत ने आगे पैर बढ़ाया है उसने संगीत का सहारा लिया है अथवा, गणितवालों के शब्दों में, जिस अनुपात में जो समाज वा प्रांत गानविद्या से विमुख है अथवा नहीं है। उसी अनुपात से वह समाज समृद्धि के मार्ग में पीछे पड़ा हुआ अथवा बढ़ा हुआ है।

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