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संगीत

पर सारांश यही निकलता है कि असत् गीत वाद्यादिक की निंदा ही से वहाँ तात्पर्य है, विनोद और उच्च श्रानंदमय आहाद-प्रधान संगीत कि निंदा से नहीं। नहीं तो पतंजलि यह काहे को कहते कि ये वीणाया गायति ते धन सनयः' और काहे को पवित्र यज्ञों में वीणागाथियों के गान और सम्मान की बाते जगह जगह सुनाई पड़ती ?

मेरे वक्तव्य का दूसरा अंश यह है कि 'हिंदू और विशेषतः उच्च आर्य जातियों के प्रतिनिधि यदि संगीत की निंदा और अपमान करते हैं तो वे उस मार्ग से दूर जा रहे हैं जिस पर उनके 'पूर्वे पितर:' चले थे। यही नहीं, वे पितरों के कर्मों के विरुद्ध चल रहे हैं क्योंकि वे गवैयों के बेटे पोते हैं-उनके बहुत पुराने पुरुषा गवैए थे।'

आप आश्चर्य कग्गे। मैं फिर कहता हूँ कि आपके बाप दादा गवैए थे। संक्षेप से इस बात को विचारिए। सब वर्गों को उत्पत्ति पाठ गोत्रकार ऋषियों से ही है । क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी उन्हीं गोत्रकार ऋषियों की संतान हैं। शूद्रों को जरा देर के लिए छोड़ दीजिए, क्योंकि वे गान की और गवैयाँ की निंदा नहीं करतं । क्षत्रिय और वैश्य कुलो के वे ही ऋषि हैं जो ब्राह्मण कुलो के और ब्राह्मण कुलों के ऋषि न केवल वेदों के द्रष्टा थे, वे वेद- मंत्रों के ऋक् , यजु, साम नामक त्रिधा भिन्न स्तुति, कर्म और गान रूप प्रथा के चलानेवाले थे। जहाँ पर वैदिक कर्म में 'ऋग्भिः शंसति' और 'यजुभिर्जुहोति' है, वहीं पर 'सामभि-