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निबंध-रत्नावली

 चतुर-गोप शिशु खेलन माँही, वेणु-वाद-नव-रीति महाही ।
जबै अरी यसुदा ! तव ताता, श्रोष्ट बिम्ब धरि वेणु बजाता ।।
XXX
तबहिं सेा सुनि सबै सुरवृंदा, ब्रह्म-इंद्र-शिव-पाय अनंदा ।
 नमित-ग्रीव चित-ध्यान लगावें, रागभेद नहिं जानि लजावें ॥
XXX
करत हासऽरु कटाक्ष विलासा, हा ! तबै हम बँधे स्मर-पासा
तरु-समान गति होय हमारी, भूलि जाँहि कबरी अरु सारी ॥
XXX

पति सुतादि को छाँडि कुलगली, तव समीप हा! आ गई छली ! सरस गीत सों मोहि जो गई तियन रैन में को तजै? दई ।

ऐसे बड़े उस्ताद के वंशधरों की क्या, जातिभाइयों को मी क्या, एक देशवासियों तक को गाने-बजाने से प्रोति न होनी चाहिए। हाँ, यदि कोई मेरा युवा मित्र यह कह उठे कि वह तो कवियों की कल्पना है, सच्ची बात थोड़ी है; तो मैं चुपके से उसके कान में कहूँगा कि संस्कृत की एक प्रसिद्ध कहावत के अनुसार एक ही मुर्गी का एक हिस्सा पकाने के और दूसरा हिस्सा अंडा देने के काम में नहीं आ सकता । मैं मानता हूँ कि यह कवियों की रचना है; परंतु तुम्हारी वंशावली का कृष्ण से मिलना भी क्या कवियों की रचना नहीं है ?

अब मर्यादापुरुषोत्तम राजा रामचंद्र के दोनों पुत्रों की ओर बाइए। उनके नाम कुश और लव थे। ये कुछ निराले से