पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२७९

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देवकुल

इंडियन एटिवेरी (जिल्द ४२, सन् १६ १३, पृष्ठ ५२) में दिखागा था कि पृथ्व राज विजय के कर्ता जयानक और उसके टीकाकार जोन- राज के समय तक यह साहित्यिक प्रवाद था कि भास और व्यास समकालीन थे । उनको काव्यविषयक स्पद्धा को परीक्षा के लिये भास का ग्रंथ विष्णुधर्म व्यास के किसो काव्य के साथ साथ अग्नि में डाला गया तो अग्नि ने उसे उत्कृष्ट समझकर नहीं ज नाया। पंडित गणपति शास्त्री ने बिना मेरा नाम उल्लेख किए पृथ्वोराजविजय तथा उसकी टीका के अवतरण के भाव को यों कहकर उड़ाना चाहा है कि 'विष्णु धर्मान्' कर्म का बहुवचन काव्य का नाम नहीं, किंतु 'विष्णुधर्मात् हेतु की पंचमी का एकवचन है कि अग्नि मध्यस्थ था, परीक्षक था, विष्णु के स्थानापन्न था, उसने विष्णुधर्म से भास के काव्य को नहीं जलाया ! विष्णु को यहाँ घुसेड़ने की क्या आवश्यकता थो ? मैं अब भी मानता हूँ कि भासकृत विष्णुधर्म न मक ग्रन्थ व्यास ( ? ) कृत विष्णुधर्मोत्तर पुराण के जोड़ का हो सकता है तथा भास-व्यास की समकालिकता का प्रवाद अधिक विचार चाहता है । महाभारत के टोकाकार नीलकंट ने प्रारंभ ही में 'जय' शब्द का अर्थ करते हुए पुराणों से 'विष्णुधर्माः' को अलग ग्रंथ गिना है। यहाँ भी बहुवचन प्रयोग ध्यान देने योग्य है। नीलकंठ के श्लोक ये हैं -

अष्टादश पुराणानि रामस्य चरित तथा ।
काणं वेद पंचमं च यन्महाभारतं विदुः ।
तथैव विष्णुधर्माश्च शिवधर्माश्च शाश्वताः ।
जयेति नाम तेषां च प्रवदति मनीषिणः ।।