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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२९

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निबंध-रत्नावली पहला भाग > (१) श्रीपंचमी इस बात को तो अनेक जन जानते होंगे कि हिंदुओं की प्रत्येक बात में धर्मभाव प्रतिष्ठित है, यहाँ तक कि उनका आमोद- प्रमोद वा हँसी-दिल्लगी भी भगवत्-संबंध से खाली नहीं है। कोई सप्ताह भर में एक बार निराकार को बाहर देखकर अपने सिर से एक बला टाल देता है और कोई दिन भर में पाँच बार के पंचांग पाठ पर अभिमान करने लगता है कि हमारे बराबर उपासक जन एक भी नहीं । किंतु यदि निरपेक्ष भाव से दुराग्रह छोड़कर हिंदुओं के सनातन धर्म को आलोचना की जाय तो यह सहज ही में निश्चय हो जायगा कि इस जाति की तुलना दूसरो जाति धर्मभाव में नहीं कर सकती। हमारे दूरदर्शी प्राचीन महर्षि हमारे लिये अमृत ही नहीं छोड़ गए वरंच विष में भी "अमृत" मिलाकर हमें निर्भय कर गए हैं ! यह हमारा दुभाग्य है कि हन शास्त्ररहस्य. व धर्मतत्व को न जानकर अमृत का भी विष समझ त्याग रहे हैं।