पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/३०१

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पुरानी हिंदी

वैदिक भाषा को अविभक्तिक निर्देश को विरासत भी इसे मिली । विभक्तियों के खिर जाने से कई अव्यय या पद लुप्त-विभक्तिक पद के आगे रखे जाने लगे, जो विभक्तियां नहीं हैं। क्रियापदों में मार्जन हुआ । हाँ, इसने केवल प्राकृत हो के तद्भव और तत्सम पद नहीं लिए, किंतु धनवती अपुत्रा मौसी से भी कई तत्सम पद लिए* । साहित्य की प्राकृत साहित्य को भाषा ही हो चली थी, वहाँ गत भी गय और गज भो गय; काच, काय ( =शरीर ), कार्य सब के लिये काय । इसमें भाषा के प्रधान लक्षण-सुनने से अर्थबोध-का व्याघात होता था । अपभ्रंश में दोनों प्रकार के शब्द मिलते हैं । जैसे शौरसेनी, पैशाची, मागधी आदि भेदों के होते हुए भो प्राकृत एक हो यो वैसे शौरसेनी अपभ्रंश, पैशाची अपभ्रश, महाराष्ट्री अपभ्रश आदि होकर एक ही अपभ्रंश प्रबल हुई । हेमचंद्र ने जिस अपभ्रंश का वर्णन किया है वह शौरसेनी के आधार पर है। मार्कडेय ने एक 'नागर' अपभ्रंश की चर्चा की है जिसका अर्थ

नगरवासी चतुर, शिक्षित (गबई से विपरीत ) लोगों की भाषा,


• उद्भव प्रयोगों के अधिक घिस जाने पर भाषा में एक अवस्था पाती है जब शुद्ध तत्समों का प्रयोग करने को टेव पड़ जाती है। हिंदी में अब कोई जस या गुनवत नहीं लिखता, यश और गुणवान लिखते हैं । बोलें चाहे तरी, परसोतम और हर्किसुन, लिखेंगे तरह, पुरुषोत्तम और रण।