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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/६२

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निबंध-रत्नावली

पुण्यसलिला गंगा, यमुना और सरयू के तट पर जहाँ यज्ञों के सहस्रों यूप दूर से दिखलाई पड़ते थे, अहो! अब उनकी जगह मसजिदों के मीनार दृष्टिगोचर होते हैं! ये मीनार नहीं हैं, काशी मथुरा आदि देवियों के ऊध्वबाहु हैं जो जगदीश्वर से अत्याचारियों के अत्याचार की फर्याद कर चिरकाल से त्राहि त्राहि पुकार रहे हैं! पाठक! एक बार इन पुरियों को देखिए और अतीत घटना का स्मरण कर काल की कुटिलता का अनुभव कीजिए कि उसने क्या से क्या कर दिखाया? जहाँ बड़े बड़े दुर्ग और ऊँचे ऊँचे सुंदर प्रासाद पुरियों की शोभा बढ़ा रहे थे, वहाँ अब चारों ओर टूटे फूटे खँडहर पड़े हैं और उनमें गीदड़ रो रहे हैं! काल की कुटिला गति को कोई कार्य्य दुर्घट नहीं। वह सब कर सकती है। जहाँ भगवान् राम कृष्ण आदि का जन्म हुआ था, जहाँ आता हुआ किसी समय देवेंद्र भी थर्राता था, जहाँ वीणा की आवाज, धनुष की टंकार और वेद की ध्वनि हर तरफ से आती थी, वहाँ अब मसजिद बनी हुई है और "तहँ अब रोवत सिवा चहूँ दिशि लखियत खंडहर"।

लक्ष्मी का घर, रत्नों की खानि और महापुरुषों की जन्म- भूमि होकर भी ये सप्तपुरियाँ आज धूल में मिल रही हैं। हमारी ये सातों पुरियाँ किन किन राजाओं बादशाहों के हाथ कब कब और किस किस तरह आई, किस किस ने कैसा कैसा यहाँ पर जोर-जुल्म किया और कौन कौन से समय के