पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१०

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हरिगङ्गा

आठ मास धोने जजमान ।

अब तो रो दच्छिना दान , हरिगङ्गा

आजु काल्दि जो रुपया देव ।

मानौ काटि यज्ञ करि लेव ॥ हरिगङ्गा

मांगत हमका लागै लाज ।

पै रुपया बिन चलै न काज ॥ हरिगङ्गा

तुम अधोन ब्राह्मन के प्रान ।

ज्यादा कौन बकै जजमान ॥ हरिगङ्गा

जो यहु देही यहुत खिझाय।

यह मौनिउं भलमसी आय । हरिगङ्गा

सेघादान अकारथ (१) होय।

हिन्दू जानन हैं मय कोय ॥ हरिगङ्गा

हसी खुसी से स्पया देव ।

दूध पूत सब हमते लेव ॥ हरिगङ्गा

काशी पुन्नि गया मां पुन्नि ।

वाचा वैजनाथ मा पुनि ॥ हरिगङ्गा

प्रतापनारायण के कोई कोई लेस व्यग्य से बेतरह भरे हुए होत थे। उन्होंने एक दफा भङ्गड ओर फक्कड का किस्सा उत्तर प्रत्युत्तर के रूप में लिखा था। वह साद्यन्त विकट व्यग्यों से पूर्ण है। हसी दिरलगी के लेख लियकर ग्राहकों को रिझाना इन्हें खूब आता था । तिस पर भी लोग "ब्राह्मण" की कीमत वक्त पर न देते थे। बहुतेरे तो देते ही न थे। इससे इनको तग होना पड़ता था और घाटा भी उठाना